[१२-१९] दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का वर्णन

  ॥ सञ्जय उवाच ॥
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्च‍ैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२ ॥
तस्य—उसका; सञ्जनयन्—बढाते हुए; हर्षम्—हर्ष; कुरु-वृद्ध:—कुरुवंश के वयोवृद्ध (भीष्म) ; पितामह:—पितामह, बाबा; सिंह-नादम्—सिंह की सी गर्जना; विनद्य—गरज कर; उच्चै:—उच्च स्वर से; शङ्खम्—शंख; दध्मौ—बजाया; प्रताप वान्—बलशाली ।
कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया ॥ १२ ॥

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥
तत:—तत्पश्चात्; शङ्खा:—शंख; च—भी; भेर्य:—बड़े-बड़े ढोल, नगाड़े; च—तथा; पणव-आनक—ढोल तथा मृदंग; गो-मुखा:—शृंग; सहसा—अचानक; एव—निश्चय ही; अभ्यहन्यन्त—एकसाथ बजाये गये; स:—वह; शब्द:—समवेत स्वर; तुमुल:— कोलाहलपूर्ण; अभवत्—हो गया ।
इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ ॥ १३ ॥

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥
तत:—तत्पश्चात्; श्वेतै:—श्वेत; हयै:—घोड़ों से; युक्ते—युक्त; महति—विशाल; स्यन्दने—रथ में; स्थितौ—आसीन; माधव:—कृष्ण (लक्ष्मीपति) ने; पाण्डव:— अर्जुन (पाण्ड़ुपुत्र) ने; च—तथा; एव—निश्चय ही; दिव्यौ—दिव्य; शङ्खौ—शंख; प्रदध्मतु:—बजाये ।
इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए ॥ १४ ॥

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५ ॥
पाञ्चजन्यम्—पाञ्चजन्य नामक; हृषीक-ईश:—हृषीकेश (कृष्ण जो भक्तों की इन्द्रियों को निर्देश करते हैं) ने; देवदत्तम्—देवदत्त नामक शंख; धनम्-जय:—धनञ्जय (अर्जुन, धन को जीतने वाला) ने; पौण्ड्रम्—पौण्ड्र नामक शंख; दध्मौ—बजाया; महा-शङ्खम्—भीषण शंख; भीम-कर्मा—अतिमानवीय कर्म करने वाले; वृक- उदर:—(अतिभोजी) भीम ने ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया ॥ १५ ॥

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ १६ ॥
अनन्त-विजयम्—अनन्त विजय नाम का शंख; राजा—राजा; कुन्ती-पुत्र:—कुन्ती के पुत्र; युधिष्ठिर:—युधिष्ठिर; नकुल:—नकुल; सहदेव:—सहदेव ने; च—तथा; सुघोष- मणिपुष्पकौ—सुघोष तथा मणिपुष्पक नामक शंख ।
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए ॥ १६ ॥

काश्यश्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथ: ।
धृष्टद्युम्न‍ो विराटश्च सात्यकिश्‍चापराजित: ॥ १७ ॥
काश्य:—काशी (वाराणसी) के राजा ने; च—तथा; परम-इषु-आस:—महान धनुर्धर; शिखण्डी—शिखण्डी ने; च— भी; महा-रथ:—हजारों से अकेले लडऩे वाले; धृष्टद्युम्न:—धृष्टद्युम्न (राजा द्रुपद के पुत्र) ने; विराट:—विराट (राजा जिसने पाण्डवों को उनके अज्ञात-वास के समय शरण दी) ने; च—भी; सात्यकि:—सात्यकि (युयुधान, श्रीकृष्ण के साथी) ने; च— तथा; अपराजित:—कभी न जीता जाने वाला, सदा विजयी ।
श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि ॥ १७ ॥

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश: पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहु: शङ्खान्दध्मु: पृथक्पृथक् ॥ १८ ॥
द्रुपद:—द्रुपद, पंचाल के राजा ने; द्रौपदेया:—द्रौपदी के पुत्रों ने; च—भी; सर्वश:—सभी; पृथिवी-पते—हे राजा; सौभद्र:—सुभद्रापुत्र अभिमन्यु ने; च—भी; महा-बाहु:—विशाल भुजाओं वाला; शङ्खान्—शंख; दध्मु:—बजाए; पृथक् पृथक्—अलग अलग ।
राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे राजन्‌! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाए ॥ १८ ॥

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् ॥ १९ ॥
स:—उस; घोष:—शब्द ने; धार्तराष्ट्राणाम्—धृतराष्ट्र के पुत्रों के; हृदयानि—हृदयों को; व्यदारयत्—विदीर्ण कर दिया; नभ:—आकाश; च—भी; पृथिवीम्—पृथ्वीतल को; च—भी; एव—निश्चय ही; तुमुल:—कोलाहलपूर्ण; अभ्यनुनादयन्—प्रतिध्वनित करता, शब्दायमान करता ।
और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात आपके पक्षवालों के हृदय विदीर्ण कर दिए ॥ १९ ॥