[२०-२७] अर्जुन का सैन्य परिक्षण और उपस्थित बंधुओं को देखना
॥ अर्जुन उवाच ॥
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ २० ॥
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ २० ॥
अथ—तत्पश्चात्; व्यवस्थितान्—स्थित; दृष्ट्वा—देखकर; धार्तराष्ट्रान्—धृतराष्ट्र के पुत्रों को; कपि-ध्वज:—जिसकी पताका पर हनुमान अंकित हैं; प्रवृत्ते—कटिबद्ध; शस्त्र- सम्पाते—बाण चलाने के लिए; धनु:—धनुष; उद्यम्य—ग्रहण करके, उठाकर; पाण्डव:—पाण्डुपुत्र (अर्जुन) ने ।
उस समय हनुमान से अंकित ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डुपुत्र अर्जुन अपना धनुष उठा कर तीर चलाने के लिए तैयार हुए ॥ २० ॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ २१ ॥
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ २१ ॥
हृषीकेशम्—भगवान् कृष्ण से; तदा—उस समय; वाक्यम्—वचन; इदम्—ये; आह—कहे; मही-पते—हे राजा; सेनयो:—सेनाओं के; उभयो:—दोनों; मध्ये—बीच में; रथम्—रथ को; स्थापय—कृपया खड़ा करें; मे—मेरे; अच्युत—हे अच्युत।
अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहे।
हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच ले चलें ॥ २१ ॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥
यावत्—जब तक; एतान्—इन सब; निरीक्षे—देख सकूँ; अहम्—मैं; योद्धु- कामान्—युद्ध की इच्छा रखने वालों को; अवस्थितान्—युद्धभूमि में एकत्र; कै:— किन-किन से; मया—मेरे द्वारा; सह—एक साथ; योद्धव्यम्—युद्ध किया जाना है; अस्मिन्—इस; रण—संघर्ष, झगड़ा के; समुद्यमे—उद्यम या प्रयास में ।
जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए ॥ २२ ॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ २३ ॥
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ २३ ॥
योत्स्यमानान्—युद्ध करने वालों को; अवेक्षे—देखूँ; अहम्—मैं; ये—जो; एते—वे; अत्र—यहाँ; समागता:—एकत्र; धार्तराष्ट्रस्य—धृतराष्ट्र के पुत्र की; दुर्बुद्धे:—दुर्बुद्धि; युद्धे—युद्ध में; प्रिय—मंगल, भला; चिकीर्षव:—चाहने वाले ।
मुझे उन लोगों को देखने दीजिये जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धि पुत्र (दुर्योधन) को प्रसन्न करने की इच्छा से लडऩे के लिए आये हुए हैं ॥ २३ ॥
॥ सञ्जय उवाच ॥
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४ ॥
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४ ॥
एवम्—इस प्रकार; उक्त:—कहे गये; हृषीकेश:— भगवान् कृष्ण ने; गुडाकेशेन—अर्जुन द्वारा; भारत—हे भरत के वंशज; सेनयो:— सेनाओं के; उभयो:—दोनों; मध्ये—मध्य में; स्थापयित्वा—खड़ा करके; रथ- उत्तमम्—उस उत्तम रथ को ।
संजय ने कहा— हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भगवान् कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस उत्तम रथ को लाकर खड़ा कर दिया ॥ २४ ॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति ॥ २५ ॥
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति ॥ २५ ॥
भीष्म—भीष्म पितामह; द्रोण—गुरु द्रोण; प्रमुखत:—के समक्ष; सर्वेषाम्—सबों के; च—भी; मही-क्षिताम्—संसार भर के राजा; उवाच—कहा; पार्थ—हे पृथा के पुत्र; पश्य—देखो; एतान्—इन सबों को; समवेतान्—एकत्रित; कुरून्—कुरुवंश के सदस्यों को; इति—इस प्रकार ।
भीष्म, द्रोण तथा विश्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो ॥ २५ ॥
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ॥ २६ ॥
तत्र—वहाँ; अपश्यत्—देखा; स्थितान्—खड़े; पार्थ:—पार्थ ने; पितृृन्—पितरों (चाचा-ताऊ) को; अथ—भी; पितामहान्—पितामहों को; आचार्यान्—शिक्षकों को; मातुलान्—मामाओं को; भ्रातृन्—भाइयों को; पुत्रान्—पुत्रों को; पौत्रान्—पौत्रों को; सखीन्—मित्रों को; तथा—और; श्वशुरान्—श्वसुरों को; सुहृद:—शुभचिन्तकों को; च—भी; एव—निश्चय ही; सेनयो:—सेनाओं के; उभयो:—दोनों पक्षों की; अपि—सहित ।
अर्जुन ने वहाँ पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा-ताउओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, ससुरों और शुभचिन्तकों को भी देखा ॥ २६ ॥
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ॥ २७ ॥
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ॥ २७ ॥
तान्—उन सब को; समीक्ष्य—देखकर; स:—वह; कौन्तेय:—कुन्तीपुत्र; सर्वान्— सभी प्रकार के; बन्धून्—सम्बन्धियों को; अवस्थितान्—स्थित; कृपया—दयावश; परया—अत्यधिक; आविष्ट:—अभिभूत; विषीदन्—शोक करता हुआ; इदम्—इस प्रकार; अब्रवीत्—बोला ।
उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। ॥ २७ ॥