[२८-४६] अर्जुन का विषाद और कुल के नाश का विचार
॥ अर्जुन उवाच ॥
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥ २८ ॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥ २८ ॥
दृष्ट्वा—देख कर; इमम्—इन सारे; स्व-जनम्— सम्बन्धियों को; कृष्ण—हे कृष्ण; युयुत्सुम्—युद्ध की इच्छा रखने वाले; समुपस्थितम्—उपस्थित; सीदन्ति—काँप रहे हैं; मम—मेरे; गात्राणि—शरीर के अंग; मुखम्—मुँह; च—भी; परिशुष्यति—सूख रहा है ।
अर्जुन ने कहा— हे कृष्ण! इस प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है ॥ २८ ॥
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ॥ २९ ॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ॥ २९ ॥
वेपथु:—शरीर का कम्पन; च—भी; शरीरे—शरीर में; मे—मेरे; रोम-हर्ष:—रोमांच; च—भी; जायते—उत्पन्न हो रहा है; गाण्डीवम्—अर्जुन का धनुष, गाण्डीव; स्रंसते— छूट या सरक रहा है; हस्तात्—हाथ से; त्वक्—त्वचा; च—भी; एव—निश्चय ही; परिदह्यते—जल रही है ।
मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है, मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है ॥ २९ ॥
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥ ३० ॥
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥ ३० ॥
न—नहीं; च—भी; शक्नोमि—समर्थ हूँ; अवस्थातुम्—खड़े होने में; भ्रमति—भूलता हुआ; इव—सदृश; च—तथा; मे—मेरा; मन:—मन; निमित्तानि—कारण; च—भी; पश्यामि—देखता हूँ; विपरीतानि—बिल्कुल उलटा; केशव—हे केशी असुर के मारने वाले (कृष्ण) ।
मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ और मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है। हे केशव! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं ॥ ३० ॥
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥ ३१ ॥
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥ ३१ ॥
न—न तो; च—भी; श्रेय:—कल्याण; अनुपश्यामि—पहले से देख रहा हूँ; हत्वा— मार कर; स्व-जनम्—अपने सम्बन्धियों को; आहवे—युद्ध में; न—न तो; काङ्क्षे— आकांक्षा करता हूँ; विजयम्—विजय; कृष्ण—हे कृष्ण; न—न तो; च—भी; राज्यम्—राज्य; सुखानि—उसका सुख; च—भी ।
इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है। हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुख की इच्छा रखता हूँ ॥ ३१ ॥
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥ ३२ ॥
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥ ३२ ॥
किम्—क्या लाभ; न:—हमको; राज्येन—राज्य से; गोविन्द—हे कृष्ण; किम्—क्या; भोगै:—भोग से; जीवितेन—जीवित रहने से; वा—अथवा; येषाम्—जिनके; अर्थे— लिए; काङ्क्षितम्—इच्छित है; न:—हमारे द्वारा; राज्यम्—राज्य; भोगा:—भौतिक भोग; सुखानि—समस्त सुख; च—भी ।
हे गोविन्द! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ! क्योंकि हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं ॥ ३२ ॥
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥ ३३ ॥
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥ ३३ ॥
ते—वे; इमे—ये; अवस्थिता:—स्थित; युद्धे—युद्धभूमि में; प्राणान्—जीवन को; त्यक्त्वा—त्याग कर; धनानि—धन को; च—भी; आचार्या:—गुरुजन; पितर:—पितृगण; पुत्रा:—पुत्रगण; तथा—और; एव—निश्चय ही; च—भी; पितामहा:—पितामह ।
वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में मेरे समक्ष खड़े हैं। गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥ ३३ ॥
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ॥ ३४ ॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ॥ ३४ ॥
मातुला:—मामा लोग; श्वशुरा:— श्वसुर; पौत्रा:—पौत्र; श्याला:—साले; सम्बन्धिन:—सम्बन्धी; तथा—तथा; एतान्—ये सब; न—कभी नहीं; हन्तुम्—मारना; इच्छामि—चाहता हूँ; घ्नत:—मारे जाने पर; अपि—भी; मधुसूदन—हे मधु असुर के मारने वाले (कृष्ण) ।
मामा, ससुर, पौत्रगण, साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी लोग हैं। हे मधुसूदन! मैं इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें ॥ ३४ ॥
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ॥ ३५ ॥
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ॥ ३५ ॥
अपि—तो भी; त्रै लोक्य—तीनों लोकों के; राज्यस्य—राज्य के; हेतो:—विनिमय में; किम् नु—क्या कहा जाय; मही-कृते—पृथ्वी के लिए; निहत्य—मारकर; धार्तराष्ट्रान्—धृतराष्ट्र के पुत्रों को; न:—हमारी; का—क्या; प्रीति:—प्रसन्नता; स्यात्—होगी; जनार्दन—हे जीवों के पालक ।
तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है। हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? ॥ ३५ ॥
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्सबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३६ ॥
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्सबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३६ ॥
पापम्—पाप; एव—निश्चय ही; आश्रयेत्—लगेगा; अस्मान्—हमको; हत्वा— मारकर; एतान्—इन सब; आततायिन:—आततायियों को; तस्मात्—अत:; न—कभी नहीं; अर्हा:—योग्य; वयम्—हम; हन्तुम्—मारने के लिए; धार्तराष्ट्रान्—धृतराष्ट्र के पुत्रों को; स-बान्धवान्—उनके मित्रों सहित; स्व-जनम्—कुटुम्बियों को; हि—निश्चय ही; कथम्—कैसे; हत्वा—मारकर; सुखिन:—सुखी; स्याम—हम होंगे; माधव—हे लक्ष्मीपति कृष्ण ।
इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। अत: अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा उनके मित्रों का वध करने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? ॥ ३६ ॥
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३७ ॥
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३७ ॥
यदि—यदि; अपि—भी; एते—ये; न—नहीं; पश्यन्ति—देखते हैं; लोभ—लोभ से; उपहत—अभिभूत; चेतस:—चित्त वाले; कुल-क्षय—कुल-नाश; कृतम्—किया हुआ; दोषम्—दोष को; मित्र-द्रोहे—मित्रों से विरोध करने में; च—भी; पातकम्— पाप को ।
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते ॥ ३७ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मन्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३८ ॥
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३८ ॥
कथम्—क्यों; न—नहीं; ज्ञेयम्—जानना चाहिए; अस्माभि:—हमारे द्वारा; पापात्—पापों से; अस्मात्—इन; निवर्तितुम्—बन्द करने के लिए; कुल-क्षय—वंश का नाश; कृतम्—हो जाने पर; दोषम्—अपराध; प्रपश्यद्भि:—देखने वालों के द्वारा; जनार्दन—हे कृष्ण! ।
हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए? ॥ ३८ ॥
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ ३९ ॥
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ ३९ ॥
कुल-क्षये—कुल का नाश होने पर; प्रणश्यन्ति—विनष्ट हो जाती हैं; कुल-धर्मा:— पारिवारिक परम्पराएँ; सनातना:—शाश्वत; धर्मे—धर्म; नष्टे—नष्ट होने पर; कुलम्— कुल को; कृत्स्नम्—सम्पूर्ण; अधर्म:—अधर्म; अभिभवति—बदल देता है; उत—कहा जाता है ।
कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल भी अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है ॥ ३९ ॥
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥ ४० ॥
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥ ४० ॥
अधर्म—अधर्म; अभिभवात्—प्रमुख होने से; कृष्ण—हे कृष्ण; प्रदुष्यन्ति—दूषित हो जाती हैं; कुल-स्त्रिय:—कुल की स्त्रियाँ; स्त्रीषु—स्त्रीत्व के; दुष्टासु—दूषित होने से; वार्ष्णेय—हे वृष्णिवंशी; जायते—उत्पन्न होती है; वर्ण-सङ्कर:—अवांछित सन्तान ।
हे कृष्ण! जब कुल में अधर्म प्रमुख हो जाता है तो कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं और स्त्रीत्व के पतन से हे वृष्णिवंशी! अवांछित सन्तानें उत्पन्न होती हैं ॥ ४० ॥
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४१ ॥
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४१ ॥
सङ्कर:—ऐसे अवांछित बच्चे; नरकाय—नारकीय जीवन के लिए; एव—निश्चय ही; कुल-घ्नानाम्—कुल का वध करने वालों के; कुलस्य—कुल के; च—भी; पतन्ति— गिर जाते हैं; पितर:—पितृगण; हि—निश्चय ही; एषाम्—इनके; लुप्त—समाप्त; पिण्ड—पिण्ड अर्पण की; उदक—तथा जल की; क्रिया:—क्रिया, कृत्य ।
अवांछित सन्तानों की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए नारकीय जीवन उत्पन्न होता है। ऐसे पतित कुलों के पुरखे (पितर लोग) गिर जाते हैं क्योंकि उन्हें जल तथा पिण्ड दान देने की क्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं ॥ ४१ ॥
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ ४२ ॥
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ ४२ ॥
दोषै:—ऐसे दोषों से; एतै:—इन सब; कुल-घ्नानाम्—परिवार नष्ट करने वालों का; वर्ण-सङ्कर—अवांछित संतानों के; कारकै:—कारणों से; उत्साद्यन्ते—नष्ट हो जाते हैं; जाति-धर्मा:—सामुदायिक योजनाएँ; कुल-धर्मा:—पारिवारिक परम्पराएँ; च—भी; शाश्वता:—सनातन ।
जो लोग कुल-परम्परा को विनष्ट करते हैं और इस तरह अवांछित सन्तानों को जन्म देते हैं उनके वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ॥ ४२ ॥
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ४३ ॥
नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ४३ ॥
उत्सन्न—विनष्ट; कुल-धर्माणाम्—पारिवारिक परम्परा वाले; मनुष्याणाम्—मनुष्यों का; जनार्दन—हे कृष्ण; नरके—नरक में; नियतम्—सदैव; वास:—निवास; भवति—होता है; इति—इस प्रकार; अनुशुश्रुम—गुरु-परम्परा से मैंने सुना है ।
हे जनार्दन! जो लोग कुल-धर्म का विनाश करते हैं, वे अनिश्चितकाल तक नरक में वास करते हैं, ऐसा हम गुरु-परम्परा से सुनते आए हैं ॥ ४३ ॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ ४४ ॥
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ ४४ ॥
अहो—हा! शोक!; बत—कितना आश्चर्य है यह; महत्—महान; पापम्—पाप कर्म; कर्तुम्—करने के लिए; व्यवसिता:—निश्चय किया है; वयम्—हमने; यत्—क्योंकि; राज्य-सुख-लोभेन—राज्य-सुख के लालच में आकर; हन्तुम्—मारने के लिए; स्व जनम्—अपने सम्बन्धियों को; उद्यता:—तत्पर ।
ओह! कितने आश्चर्य की बात है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं ॥ ४४ ॥
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४५ ॥
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४५ ॥
यदि—यदि; माम्—मुझको; अप्रतीकारम्—प्रतिरोध न करने के कारण; अशस्त्रम्— बिना हथियार के; शस्त्र-पाणय:—शस्त्रधारी; धार्तराष्ट्रा:—धृतराष्ट्र के पुत्र; रणे— युद्धभूमि में; हन्यु:—मारें; तत्—वह; मे—मेरे लिए; क्षेम-तरम्—श्रेयस्कर; भवेत्— होगा ।
यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए श्रेयस्कर होगा ॥ ४५ ॥
॥ सञ्जय उवाच ॥
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ ४६ ॥
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ ४६ ॥
एवम्—इस प्रकार; उक्त्वा—कहकर; अर्जुन:— अर्जुन; सङ्ख्ये—युद्धभूमि में; रथ—रथ के; उपस्थे—आसन पर; उपाविशत्—पुन: बैठ गया; विसृज्य—एक ओर रखकर; स-शरम्—बाणों सहित; चापम्—धनुष को; शोक—शोक से; संविग्न—संतप्त, उद्विग्न; मानस:—मन के भीतर ।
संजय ने कहा— युद्धभूमि में इस प्रकार कह कर अर्जुन ने अपना बाणसहित धनुष को त्यागकर शोक से उद्विग्न मन से रथ के आसन पर बैठ गए ॥ ४६ ॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे ।
श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥