[०१-१०] अर्जुन की व्यथा पर श्री कृष्णार्जुन-संवाद

  ॥ सञ्जय उवाच ॥
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ १ ॥
तम्—अर्जुन के प्रति; तथा—इस प्रकार; कृपया— करुणा से; आविष्टम्—अभिभूत; अश्रु-पूर्ण-आकुल—अश्रुओं से पूर्ण; ईक्षणम्— नेत्र; विषीदन्तम्—शोकयुक्त; इदम्—यह; वाक्यम्—वचन; उवाच—कहा; मधु सूदन:—मधु का वध करने वाले (कृष्ण) ने ।
संजय ने कहा— करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर मधुसूदन कृष्ण ने यह वचन कहा ॥ १ ॥
  ॥ श्रीभगवानुवाच ॥
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यकीर्तिकरमर्जुन ॥ २ ॥
कुत:—कहाँ से; त्वा—तुमको; कश्मलम्— गंदगी, अज्ञान; इदम्—यह शोक; विषमे—इस विषम अवसर पर; समुपस्थितम्—प्राप्त हुआ; अनार्य—वे लोग जो जीवन के मूल्य को नहीं समझते; जुष्टम्—आचरित; अस्वर्ग्यम्—उच्च लोकों को जो न ले जाने वाला; अकीर्ति—अपयश का; करम्— कारण; अर्जुन—हे अर्जुन ।
श्रीभगवान् ने कहा—हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य को जानता हो। इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है ॥ २ ॥

क्ल‍ैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ ३ ॥
क्लैब्यम्—नपुंसकता; मा स्म—मत; गम:—प्राप्त हो; पार्थ—हे पृथापुत्र; न—कभी नहीं; एतत्—यह; त्वयि—तुमको; उपपद्यते—शोभा देता है; क्षुद्रम्—तुच्छ; हृदय— हृदय की; दौर्बल्यम्—दुर्बलता; त्यक्त्वा—त्याग कर; उत्तिष्ठ—खड़ा हो; परन्तप—हे शत्रुओं का दमन करने वाले ।
हे पृथापुत्र! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ, यह तुम्हें शोभा नहीं देती। हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ ॥ ३ ॥
  ॥ अर्जुन उवाच ॥
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ ४ ॥
कथम्—किस प्रकार; भीष्मम्—भीष्म को; अहम्— मैं; सङ्ख्ये—युद्ध में; द्रोणम्—द्रोण को; च—भी; मधु-सूदन—हे मधु के संहारकर्ता; इषुभि:—तीरों से; प्रतियोत्स्यामि—उलट कर प्रहार करूँगा; पूजा-अर्हौ—पूजनीय; अरि-सूदन—हे शत्रुओं के संहारक! ।
अर्जुन ने कहा— हे मधुसूदन! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर उलट कर बाण चलाऊँगा? ॥ ४ ॥

गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुज्ज‍ीय भोगान्‍रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥
गुरून्—गुरुजनों को; अहत्वा—न मार कर; हि—निश्चय ही; महा-अनुभावान्— महापुरुषों को; श्रेय:—अच्छा है; भोक्तुम्—भोगना; भैक्ष्यम्—भीख माँगकर; अपि—भी; इह—इस जीवन में; लोके—इस संसार में; हत्वा—मारकर; अर्थ—लाभ की; कामान्—इच्छा से; तु—लेकिन; गुरून्—गुरुजनों को; इह—इस संसार में; एव— निश्चय ही; भुञ्जीय—भोगने के लिए बाध्य; भोगान्—भोग्य वस्तुएँ; रुधिर—रक्त से; प्रदिग्धान्—सनी हुई, रंजित ।
इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा ॥ ५ ॥

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥
न—नहीं; च—भी; एतत्—यह; विद्म:—हम जानते हैं; कतरत्—जो; न:—हमारे लिए; गरीय:—श्रेष्ठ; यत् वा—अथवा; जयेम—हम जीत जाएँ; यदि—यदि; वा—या; न:—हमको; जयेयु:—वे जीतें; यान्—जिनको; एव—निश्चय ही; हत्वा—मारकर; न—कभी नहीं; जिजीविषाम:—हम जीना चाहेंगे; ते—वे सब; अवस्थिता:—खड़े हैं; प्रमुखे—सामने; धार्तराष्ट्रा:—धृतराष्ट्र के पुत्र ।
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है— उनको जीतना या उनके द्वारा जीते जाना। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र युद्धभूमि में हमारे समक्ष खड़े हैं ॥ ६ ॥

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्‍चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ७ ॥
कार्पण्य—कृपणता; दोष—दुर्बलता से; उपहत—ग्रस्त; स्व-भाव:—गुण, विशेषताएँ; पृच्छामि—पूछ रहा हूँ; त्वाम्—तुम से; धर्म—धर्म; सम्मूढ—मोहग्रस्त; चेता:—हृदय में; यत्—जो; श्रेय:—कल्याणकारी; स्यात्—हो; निश्चितम्—विश्वासपूर्वक; ब्रूहि— कहो; तत्—वह; मे—मुझको; शिष्य:—शिष्य; ते—तुम्हारा; अहम्—मैं; शाधि— उपदेश दीजिये; माम्—मुझको; त्वाम्—तुम्हारा; प्रपन्नम्—शरणागत ।
अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो उसे बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ। कृपया मुझको शिक्षा दीजिए ॥ ७ ॥

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूभावसपत्‍नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ ८ ॥
न—नहीं; हि—निश्चय ही; प्रपश्यामि—देखता हूँ; मम—मेरा; अपनुद्यात्—दूर कर सके; यत्—जो; शोकम्—शोक; उच्छोषणम्—सुखाने वाला; इन्द्रियाणाम्—इन्द्रियों का; अवाप्य—प्राप्त करके; भूमौ—पृथ्वी पर; असपत्नम्—शत्रुविहीन; ऋद्धम्—समृद्ध; राज्यम्—राज्य; सुराणाम्—देवताओं का; अपि—चाहे; च—भी; आधिपत्यम्—सर्वोच्चता ।
मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। स्वर्ग पर देवताओं के आधिपत्य की तरह इस धनधान्य-सम्पन्न सारी पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त करके भी मैं इस शोक को दूर नहीं कर सकूँगा ॥ ८ ॥
  ॥ सञ्जय उवाच ॥
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः ।
न योत्स्य इति गोविन्दामुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ ९ ॥
एवम्—इस प्रकार; उक्त्वा—कहकर; हृषीकेशम्— कृष्ण से, जो इन्द्रियों के स्वामी हैं; गुडाकेश:—अर्जुन, जो अज्ञान को मिटाने वाला है; परन्तप:—अर्जुन, शत्रुओं का दमन करने वाला; न योत्स्ये—नहीं लड़ूँगा; इति—इस प्रकार; गोविन्दम्—इन्द्रियों के आनन्ददायक कृष्ण से; उक्त्वा—कहकर; तूष्णीम्— चुप; बभूव—हो गया; ह—निश्चय ही ।
संजय ने कहा—इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए ॥ ९ ॥

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरूभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥ १० ॥
तम्—उससे; उवाच—कहा; हृषीकेश:—इन्द्रियों के स्वामी कृष्ण ने; प्रहसन्—हँसते हुए; इव—मानो; भारत—हे भरतवंशी धृतराष्ट्र; सेनयो:—सेनाओं के; उभयो:—दोनों पक्षों की; मध्ये—बीच में; विषीदन्तम्—शोकमग्न; इदम्—यह (निम्नलिखित) ; वच:—शब्द ।
हे भरतवंशी (धृतराष्ट्र)! उस समय दोनों सेनाओं के मध्य शोकमग्न अर्जुन से कृष्ण ने मानो हँसते हुए से यह वचन बोले ॥ १० ॥