[११-३०] गीताशास्त्र का अवतरण

  ॥ श्रीभगवानुवाच ॥
अशोच्यनन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ ११ ॥
अशोच्यान्—जो शोक के योग्य नहीं हैं; अन्वशोच:—शोक करते हो; त्वम्—तुम; प्रज्ञा-वादान्—पाण्डित्यपूर्ण बातें; च—भी; भाषसे—कहते हो; गत—चले गये, रहित; असून्—प्राण; अगत—नहीं गये; असून्— प्राण; च—भी; न—कभी नहीं; अनुशोचन्ति—शोक करते हैं; पण्डिता:—विद्वान् लोग ।
श्री भगवान् ने कहा—तुम पाण्डित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं हैं। जो विद्वान् होते हैं, वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए शोक करते हैं ॥ ११ ॥

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव नभविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२ ॥
न—नहीं; तु—लेकिन; एव—निश्चय ही; अहम्—मैं; जातु—किसी काल में; न— नहीं; आसम्—था; न—नहीं; त्वम्—तुम; न—नहीं; इमे—ये सब; जन-अधिपा:— राजागण; न—कभी नहीं; च—भी; एव—निश्चय ही; न—नहीं; भविष्याम:—रहेंगे; सर्वे वयम्—हम सब; अत: परम्—इससे आगे ।
ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊँ या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा न रहे हों; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे ॥ १२ ॥

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥
देहिन:—शरीरधारी की; अस्मिन्—इसमें; यथा—जिस प्रकार; देहे—शरीर में; कौमारम्—बाल्यावस्था; यौवनम्—यौवन, तारुण्य; जरा—वृद्धावस्था; तथा—उसी प्रकार; देह-अन्तर—शरीर के स्थानान्तरण की; प्राप्ति:—उपलब्धि; धीर:—धीर व्यक्ति; तत्र—उस विषय में; न—कभी नहीं; मुह्यति—मोह को प्राप्त होता है ।
जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा को अन्य शरीर की प्राप्ति होती है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता ॥ १३ ॥

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥
मात्रा-स्पर्शा:—इन्द्रियविषय; तु—केवल; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; शीत—जाड़ा; उष्ण—ग्रीष्म; सुख—सुख; दु:ख—तथा दुख; दा:—देने वाले; आगम—आना; अपायिन:—जाना; अनित्या:—क्षणिक; तान्—उनको; तितिक्षस्व—सहन करने का प्रयत्न करो; भारत—हे भरतवंशी ।
हे कुन्तीपुत्र! सुख तथा दुख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है। हे भरतवंशी! वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे ॥ १४ ॥

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥
यम्—जिस; हि—निश्चित रूप से; न—कभी नहीं; व्यथयन्ति—विचलित नहीं करते; एते—ये सब; पुरुषम्—मनुष्य को; पुरुष-ऋषभ—हे पुरुष-श्रेष्ठ; सम— अपरिवर्तनीय; दु:ख—दुख में; सुखम्—तथा सुख में; धीरम्—धीर पुरुष; स:—वह; अमृतत्वाय—मुक्ति के लिए; कल्पते—योग्य है ।
हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! जो पुरुष सुख तथा दुख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रहता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है ॥ १५ ॥

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १६ ॥
न—नहीं; असत:—असत् का; विद्यते—है; भाव:—चिरस्थायित्व; न—कभी नहीं; अभाव:—परिवर्तनशील गुण; विद्यते—है; सत:—शाश्वत का; उभयो:—दोनों का; अपि—ही; दृष्ट:—देखा गया; अन्त:—निष्कर्ष; तु—निस्सन्देह; अनयो:—इनका; तत्त्व—सत्य के; दर्शिभि:—भविष्यद्रष्टा द्वारा ।
तत्त्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असत् (भौतिक शरीर) का तो कोई चिरस्थायित्व नहीं है, किन्तु सत् (आत्मा) अपरिवर्तित रहता है। उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है ॥ १६ ॥

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥
अविनाशि—नाशरहित; तु—लेकिन; तत्—उसे; विद्धि—जानो; येन—जिससे; सर्वम्—सम्पूर्ण शरीर; इदम्—यह; ततम्—परिव्याप्त; विनाशम्—नाश; अव्ययस्य— अविनाशी का; अस्य—इस; न कश्चित्—कोई भी नहीं; कर्तुम्—करने के लिए; अर्हति—समर्थ है ।
जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है ॥ १७ ॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ १८ ॥
अन्त-वन्त:—नाशवान; इमे—ये सब; देहा:—भौतिक शरीर; नित्यस्य—नित्य स्वरूप; उक्ता:—कहे जाते हैं; शरीरिण:—देहधारी जीव का; अनाशिन:—कभी नाश न होने वाला; अप्रमेयस्य—न मापा जा सकने योग्य; तस्मात्—अत:; युध्यस्व—युद्ध करो; भारत—हे भरतवंशी ।
अविनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अन्त अवश्यम्भावी है। अत: हे भरतवंशी! युद्ध करो ॥ १८ ॥

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥
य:—जो; एनम्—इसको; वेत्ति—जानता है; हन्तारम्—मारने वाला; य:—जो; च— भी; एनम्—इसे; मन्यते—मानता है; हतम्—मरा हुआ; उभौ—दोनों; तौ—वे; न— कभी नहीं; विजानीत:—जानते हैं; न—कभी नहीं; अयम्—यह; हन्ति—मारता है; न—नहीं; हन्यते—मारा जाता है ।
जो इस जीवात्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि आत्मा न तो मारता है और न मारा जाता है ॥ १९ ॥

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥
न—कभी नहीं; जायते—जन्मता है; म्रियते—मरता है; वा—या; कदाचित्—कभी भी (भूत, वर्तमान या भविष्य) ; न—कभी नहीं; अयम्—यह; भूत्वा—होकर; भविता— होने वाला; वा—अथवा; न—नहीं; भूय:—अथवा, पुन: होने वाला है; अज:— अजन्मा; नित्य:—नित्य; शाश्वत:—स्थायी; अयम्—यह; पुराण:—सबसे प्राचीन; न—नहीं; हन्यते—मारा जाता है; हन्यमाने—मारा जाकर; शरीरे—शरीर में ।.
आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता ॥ २० ॥

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥
वेद—जानता है; अविनाशिनम्—अविनाशी को; नित्यम्—शाश्वत; य:—जो; एनम्— इस (आत्मा) ; अजम्—अजन्मा; अव्ययम्—निर्विकार; कथम्—कैसे; स:—वह; पुरुष:—पुरुष; पार्थ—हे पार्थ (अर्जुन) ; कम्—किसको; घातयति—मरवाता है; हन्ति—मारता है; कम्—किसको ।
हे पार्थ (अर्जुन)! जो व्यक्ति यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, अजन्मा, शाश्वत तथा अव्यय है, वह भला किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है? ॥ २१ ॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २२ ॥
वासांसि—वस्त्रों को; जीर्णानि—पुराने तथा फटे; यथा—जिस प्रकार; विहाय—त्याग कर; नवानि—नए वस्त्र; गृह्णाति—ग्रहण करता है; नर:—मनुष्य; अपराणि—अन्य; तथा—उसी प्रकार; शरीराणि—शरीरों को; विहाय—त्याग कर; जिर्णानि—वृद्ध तथा व्यर्थ; अन्यानि—भिन्न; संयाति—स्वीकार करता है; नवानि—नये; देही—देहधारी आत्मा ।
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा वृद्ध तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है ॥ २२ ॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्ल‍ेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥
न—कभी नहीं; एनम्—इस आत्मा को; छिन्दन्ति—खण्ड-खण्ड कर सकते हैं; शस्त्राणि—हथियार; न—कभी नहीं; एनम्—इस आत्मा को; दहति—जला सकता है; पावक:—अग्नि; न—कभी नहीं; च—भी; एनम्—इस आत्मा को; क्लेदयन्ति— भिगो सकता है; आप:—जल; न—कभी नहीं; शोषयति—सुखा सकता है; मारुत:— वायु ।
इस आत्मा को न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है ॥ २३ ॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्ल‍ेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥
अच्छेद्य:—न टूटने वाला; अयम्—यह आत्मा; अदाह्य:—न जलाया जा सकने वाला; अयम्—यह आत्मा; अक्लेद्य:—अघुलनशील; अशोष्य:—न सुखाया जा सकने वाला; एव—निश्चय ही; च—तथा; नित्य:—शाश्वत; सर्व-गत:—सर्वव्यापी; स्थाणु:— अपरिवर्तनीय, अविकारी; अचल:—जड़; अयम्—यह आत्मा; सनातन:—सदैव एक सा ।
यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है। इसे न तो जलाया जा सकता है, न ही सुखाया जा सकता है। यह शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है ॥ २४ ॥

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ॥
अव्यक्त:—अदृश्य; अयम्—यह आत्मा; अचिन्त्य:—अकल्पनीय; अयम्—यह आत्मा; अविकार्य:—अपरिवर्तित; अयम्—यह आत्मा; उच्यते—कहलाता है; तस्मात्—अत:; एवम्—इस प्रकार; विदित्वा—अच्छी तरह जानकर; एनम्—इस आत्मा के विषयमें; न—नहीं; अनुशोचितुम्—शोक करने के लिए; अर्हसि—योग्य हो ।
यह आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है। यह जानकर तुम्हें शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए ॥ २५ ॥

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि ॥ २६ ॥
अथ—यदि, फिर भी; च—भी; एनम्—इस आत्मा को; नित्य-जातम्—उत्पन्न होने वाला; नित्यम्—सदैव के लिए; वा—अथवा; मन्यसे—तुम ऐसा सोचते हो; मृतम्— मृत; तथा अपि—फिर भी; त्वम्—तुम; महा-बाहो—हे शूरवीर; न—कभी नहीं; एनम्—आत्मा के विषय में; शोचितुम्—शोक करने के लिए; अर्हसि—योग्य हो ।
किन्तु यदि तुम यह मानते हो कि आत्मा (अथवा जीवन का लक्षण) सदा जन्म लेती है तथा सदा मरती है तो भी हे महाबाहो! तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है ॥ २६ ॥

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥
जातस्य—जन्म लेने वाले की; हि—निश्चय ही; ध्रुव:—तथ्य है; मृत्यु:—मृत्यु; ध्रुवम्—यह भी तथ्य है; जन्म—जन्म; मृतस्य—मृत प्राणी का; च—भी; तस्मात्— अत:; अपरिहार्ये—जिससे बचा न जा सके, उसका; अर्थे—के विषय में; न—नहीं; त्वम्—तुम; शोचितुम्—शोक करने के लिए; अर्हसि—योग्य हो ।
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है। अत: अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए ॥ २७ ॥

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ २८ ॥
अव्यक्त-आदीनि—प्रारम्भ में अप्रकट; भूतानि—सारे प्राणी; व्यक्त—प्रकट; मध्यानि—मध्य में; भारत—हे भरतवंशी; अव्यक्त—अप्रकट; निधनानि—विनाश होने पर; एव—इस तरह से; तत्र—अत:; का—क्या; परिदेवना—शोक ।
सारे जीव प्रारम्भ में अव्यक्त रहते हैं, मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं और विनष्ट होने पर पुन: अव्यक्त हो जाते हैं। अत: शोक करने की क्या आवश्यकता है? ॥ २८ ॥

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्च‍ैनमन्यः श‍ृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २९ ॥
आश्चर्य-वत्—आश्चर्य की तरह; पश्यति—देखता है; कश्चित्—कोई; एनम्—इस आत्मा को; आश्चर्य-वत्—आश्चर्य की तरह; वदति—कहता है; तथा—जिस प्रकार; एव—निश्चय ही; च—भी; अन्य:—दूसरा; आश्चर्य-वत्—आश्चर्य से; च—और; एनम्—इस आत्मा को; अन्य:—दूसरा; शृणोति—सुनता है; श्रुत्वा—सुनकर; अपि— भी; एनम्—इस आत्मा को; वेद—जानता है; न—कभी नहीं; च—तथा; एव— निश्चय ही; कश्चित्—कोई ।.
कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, किन्तु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते ॥ २९ ॥

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३० ॥
देही—भौतिक शरीर का स्वामी; नित्यम्—शाश्वत; अवध्य:—मारा नहीं जा सकता; अयम्—यह आत्मा; देहे—शरीर में; सर्वस्य—हर एक के; भारत—हे भरतवंशी; तस्मात्—अत:; सर्वाणि—समस्त; भूतानि—जीवों (जन्म लेने वालों) को; न—कभी नहीं; त्वम्—तुम; शोचितुम्—शोक करने के लिए; अर्हसि—योग्य हो ।
हे भरतवंशी (अर्जुन)! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। अत: तुम्हें किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है ॥ ३० ॥

भगवान् कृष्ण ने आत्मा को अमर तथा शरीर को नाशवान बताया है। यद्यपि आत्मा अमर है, किन्तु इससे हिंसा को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। फिर भी युद्ध के समय हिंसा का निषेध नहीं किया जाता क्योंकि तब इसकी आवश्यकता रहती है। ऐसी आवश्यकता को भगवान् के विचार तथा तर्कसंगत आदेश के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है, स्वेच्छा से नहीं।