[३१-३८] क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन
॥ श्रीभगवानुवाच ॥
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥
स्व-धर्मम्—अपने धर्म को; अपि—भी; च—निस्सन्देह; अवेक्ष्य—विचार करके; न—कभी नहीं; विकम्पितुम्—संकोच करने के लिए; अर्हसि—तुम योग्य हो; धर्म्यात्—धर्म के लिए; हि—निस्सन्देह; युद्धात्—युद्ध करने की अपेक्षा; श्रेय:—श्रेष्ठ साधन; अन्यत्—कोई दूसरा; क्षत्रियस्य—क्षत्रिय का; न—नहीं; विद्यते—है ।
अपने क्षत्रिय धर्म का विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म के लिए युद्ध करने से बढ़ कर तुम्हारे लिए अन्य कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है। अत: तुम्हें संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है ॥ ३१ ॥
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ ३२ ॥
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ ३२ ॥
यदृच्छया—अपने आप; च—भी; उपपन्नम्—प्राप्त हुए; स्वर्ग—स्वर्गलोक का; द्वारम्—दरवाजा; अपावृतम्—खुला हुआ; सुखिन:—अत्यन्त सुखी; क्षत्रिया:— राजपरिवार के सदस्य; पार्थ—हे पृथापुत्र; लभन्ते—प्राप्त करते हैं; युद्धम्—युद्ध को; ईदृशम्—इस तरह ।
हे पार्थ! वे क्षत्रिय भाग्यवान हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं ॥ ३२ ॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
अथ—अत:; चेत्—यदि; त्वम्—तुम; इमम्—इस; धर्म्यम्—धर्म रूपी; सङ्ग्रामम्— युद्ध को; न—नहीं; करिष्यसि—करोगे; तत:—तब; स्व-धर्मम्—अपने धर्म को; कीर्तिम्—यश को; च—भी; हित्वा—खोकर; पापम्—पापपूर्ण फल को; अवाप्स्यसि—प्राप्त करोगे ।
किन्तु यदि तुम इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करते तो तुम्हें निश्चित रूप से अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम योद्धा के रूप में भी अपना यश खो दोगे ॥ ३३ ॥
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥
अकीर्तिम्—अपयश; च—भी; अपि—इसके अतिरिक्त; भूतानि—सभी लोग; कथयिष्यन्ति—कहेंगे; ते—तुम्हारे; अव्ययाम्—सदा के लिए; सम्भावितस्य—सम्मानित व्यक्ति के लिए; च—भी; अकीर्ति:—अपयश, अपकीर्ति; मरणात्—मृत्यु से भी; अतिरिच्यते—अधिक होती है ।
लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वर्णन करेंगे और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मृत्यु से भी बढक़र है ॥ ३४ ॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥
भयात्—भय से; रणात्—युद्धभूमि से; उपरतम्—विमुख; मंस्यन्ते—मानेंगे; त्वाम्— तुमको; महा-रथा:—बड़े-बड़े योद्धा; येषाम्—जिनके लिए; च—भी; त्वम्—तुम; बहु-मत:—अत्यन्त सम्मानित; भूत्वा—हो कर; यास्यसि—जाओगे; लाघवम्— तुच्छता को ।
जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम तथा यश को सम्मान दिया है वे सोचेंगे कि तुमने भय के कारण युद्धभूमि छोड़ दी है ॥ ३५ ॥
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६ ॥
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६ ॥
अवाच्य—कटु; वादान्—मिथ्या शब्द; च—भी; बहून्—अनेक; वदिष्यन्ति—कहेंगे; तव—तुम्हारे; अहिता:—शत्रु; निन्दन्त:—निन्दा करते हुए; तव—तुम्हारी; सामर्थ्यम्— सामर्थ्य को; तत:—उसकी अपेक्षा; दु:ख-तरम्—अधिक दुखदायी; नु—निस्सन्देह; किम्—और क्या है? ।
तुम्हारे शत्रु तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास करेंगे और अनेक प्रकार के कटु वचन भी कहेंगे। तुम्हारे लिए इससे अधिक दुखदायी और क्या हो होगा? ॥ ३६ ॥
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥
हत:—मारा जा कर; वा—या तो; प्राप्स्यसि—प्राप्त करोगे; स्वर्गम्—स्वर्गलोक को; जित्वा—विजयी होकर; वा—अथवा; भोक्ष्यसे—भोगोगे; महीम्—पृथ्वी को; तस्मात्—अत:; उत्तिष्ठ—उठो; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; युद्धाय—लडऩे के लिए; कृत—दृढ़; निश्चय:—संकल्प से ।
हे कुन्तीपुत्र! तुम यदि युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे या यदि तुम जीत जाओगे तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे। अत: युद्ध के लिए दृढ़ संकल्प करके खड़े होओ ॥ ३७ ॥
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥
सुख—सुख; दु:खे—तथा दुख में; समे—समभाव से; कृत्वा—करके; लाभ- अलाभौ—लाभ तथा हानि दोनों; जय-अजयौ—विजय तथा पराजय दोनों; तत:— तत्पश्चात्; युद्धाय—युद्ध करने के लिए; युज्यस्व—लगो (लड़ो) ; न—कभी नहीं; एवम्—इस तरह; पापम्—पाप; अवाप्स्यसि—प्राप्त करोगे ।
तुम सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझकर युद्ध के लिए युद्ध करो। इस प्रकार युद्ध करने से तुम पाप को नहीं प्राप्त होगा ॥ ३८ ॥