[३९-५३] कर्मयोग विषय का उपदेश
॥ श्रीभगवानुवाच ॥
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥
एषा—यह सब; ते—तेरे लिए; अभिहिता—वर्णन किया गया; साङ्ख्ये—वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा; बुद्धि:—बुद्धि; योगे—निष्काम कर्म में; तु—लेकिन; इमाम्—इसे; शृणु—सुनो; बुद्ध्या—बुद्धि से; युक्त:—साथ-साथ, सहित; यया—जिससे; पार्थ—हे पृथापुत्र; कर्म-बन्धम्—कर्म के बन्धन से; प्रहास्यसि—मुक्त हो जाओगे ।
यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है। अब निष्काम भाव से कर्मयोग के विषय में बता रहा हूँ, उसे सुनो।
हे पृथापुत्र! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मों के बन्धन से अपने को मुक्त कर सकते हो ॥ ३९ ॥
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥
न—नहीं; इह—इस योग में; अभिक्रम—प्रयत्न करने में; नाश:—हानि; अस्ति—है; प्रत्यवाय:—ह्रास; न—कभी नहीं; विद्यते—है; सु-अल्पम्—थोड़ा; अपि—यद्यपि; अस्य—इस; धर्मस्य—धर्म का; त्रायते—मुक्त करता है; महत:—महान; भयात्—भय से ।
इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास, अपितु इस धर्म पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है ॥ ४० ॥
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरूनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ ४१ ॥
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ ४१ ॥
व्यवसाय-आत्मिका—कृष्णभावनामृत में स्थिर; बुद्धि:—बुद्धि; एका—एकमात्र; इह—इस संसार में; कुरु-नन्दन—हे कुरुओं के प्रिय पुत्र; बहु-शाखा:—अनेक शाखाओं में विभक्त; हि—निस्सन्देह; अनन्ता:—असीम; च—भी; बुद्धय:—बुद्धि; अव्यवसायिनाम्—जो कृष्णभावनामृत में नहीं हैं उनकी ।
इस धर्म पथ पर चलने वाले प्रयोजन में दृढ़ रहते हैं और उनका लक्ष्य भी एक होता है। हे कुरुनन्दन! जो दृढ़प्रतिज्ञ नहीं हैं उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है ॥ ४१ ॥
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ ४२ ॥
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ ४२ ॥
याम् इमाम्—ये सब; पुष्पिताम्—दिखावटी; वाचम्—शब्द; प्रवदन्ति—कहते हैं; अविपश्चित:—अल्पज्ञ व्यक्ति; वेद-वाद-रता:—वेदों के अनुयायी; पार्थ—हे पार्थ; न—कभी नहीं; अन्यत्—अन्य कुछ; अस्ति—है; इति—इस प्रकार; वादिन:— बोलनेवाले ।
अल्पज्ञानी मनुष्य अज्ञान के कारण वेदों के कर्मकाण्ड भाग में बताये गये सकाम कर्मों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं ॥ ४२ ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ ४३ ॥
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ ४३ ॥
काम-आत्मान:—इन्द्रियतृप्ति के इच्छुक; स्वर्ग-परा:—स्वर्ग प्राप्ति के इच्छुक; जन्म-कर्म-फल-प्रदाम्—उत्तम जन्म तथा अन्य सकाम कर्मफल प्रदान करने वाला; क्रिया-विशेष—भडक़ीले उत्सव; बहुलाम्—विविध; भोग—इन्द्रियतृप्ति; ऐश्वर्य—तथा ऐश्वर्य; गतिम्—प्रगति; प्रति—की ओर ।
जो स्वर्ग की प्राप्ति, अच्छे जन्म, शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं। इन्द्रियतृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि इससे बढक़र और कुछ नहीं है ॥ ४३ ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ ४४ ॥
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ ४४ ॥
भोग—भौतिक भोग; ऐश्वर्य—तथा ऐश्वर्य के प्रति; प्रसक्तानाम्—आसक्तों के लिए; तया—ऐसी वस्तुओं से; अपहृत-चेतसाम्—मोहग्रसित चित्त वाले; व्यवसाय- आत्मिका—दृढ़ निश्चय वाली; बुद्धि:—भगवान् की भक्ति; समाधौ—नियन्त्रित मन में; न—कभी नहीं; विधीयते—घटित होती है ।
जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके मनों में भगवान् के प्रति भक्ति का दृढ़ निश्चय नहीं होता ॥ ४४ ॥
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥
त्रै-गुण्य—प्राकृतिक तीनों गुणों से सम्बन्धित; विषया:—विषयों में; वेदा:—वैदिक साहित्य; निस्त्रै-गुण्य:—प्रकृति के तीनों गुणों से परे; भव—होओ; अर्जुन—हे अर्जुन; निर्द्वन्द्व:—द्वैतभाव से मुक्त; नित्य-सत्त्व-स्थ:—नित्य शुद्धसत्त्व में स्थित; निर्योग- क्षेम:—लाभ तथा रक्षा के भावों से मुक्त; आत्म-वान्—आत्मा में स्थित ।
वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है। हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो। हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।), क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) भावों से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो ॥ ४५ ॥
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ४६ ॥
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ४६ ॥
यावान्—जितना सारा; अर्थ:—प्रयोजन होता है; उद-पाने—जलकूप में; सर्वत:— सभी प्रकार से; सम्प्लुत-उदके—विशाल जलाशय में; तावान्—उसी तरह; सर्वेषु— समस्त; वेदेषु—वेदों में; ब्राह्मणस्य—परब्रह्म को जानने वाले का; विजानत:—पूर्ण ज्ञानी का ।
एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरन्त पूरा हो जाता है। इसी प्रकार वेदों के आन्तरिक तात्पर्य जानने वाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं ॥ ४६ ॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७ ॥
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७ ॥
कर्मणि—कर्म करने में; एव—निश्चय ही; अधिकार:—अधिकार; ते—तुम्हारा; मा— कभी नहीं; फलेषु—(कर्म) फलों में; कदाचन—कदापि; मा—कभी नहीं; कर्म फल—कर्म का फल; हेतु:—कारण; भू:—होओ; मा—कभी नहीं; ते—तुम्हारी; सङ्ग:—आसक्ति; अस्तु—हो; अकर्मणि—कर्म न करने में ।
तुम्हें अपना कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो तथा न तो कभी अपने कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ॥ ४७ ॥
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥
योग-स्थ:—समभाव होकर; कुरु—करो; कर्माणि—अपने कर्म; सङ्गम्—आसक्ति को; त्यक्त्वा—त्याग कर; धनञ्जय—हे अर्जुन; सिद्धि-असिद्ध्यो:—सफलता तथा विफलता में; सम:—समभाव; भूत्वा—होकर; समत्वम्—समता; योग:—योग; उच्यते—कहा जाता है ।
हे धनंजय (अर्जुन)! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता योग कहलाती है (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने तथा न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है) ॥ ४८ ॥
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥
दूरेण—दूर से ही त्याग दो; हि—निश्चय ही; अवरम्—गर्हित, निन्दनीय; कर्म—कर्म; बुद्धि-योगात्—कृष्णभावनामृत के बल पर; धनञ्जय—हे सम्पत्ति को जीतने वाले; बुद्धौ—ऐसी चेतना में; शरणम्—पूर्ण समर्पण, आश्रय; अन्विच्छ—प्रयत्न करो; कृपणा:—कंजूस व्यक्ति; फल-हेतव:—सकाम कर्म की अभिलाषा वाले ।
हे धनंजय! समत्वरूप बुद्धियोग के द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण करो। जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म-फलों को भोगना चाहते हैं, वे अत्यन्त दीन हैं ॥ ४९ ॥
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ ५० ॥
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ ५० ॥
बुद्धि-युक्त:—भक्ति में लगा रहने वाला; जहाति—मुक्त हो सकता है; इह—इस जीवन में; उभे—दोनों; सुकृत-दुष्कृते—अच्छे तथा बुरे फल; तस्मात्—अत:; योगाय—भक्ति के लिए; युज्यस्व—इस तरह लग जाओ; योग:—कृष्णभावनामृत; कर्मसु—समस्त कार्यों में; कौशलम्—कुशलता, कला ।
समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। अत: समत्व रूप योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है ॥ ५० ॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥
कर्म-जम्—सकाम कर्मों के कारण; बुद्धि-युक्ता:—भक्ति में लगे; हि—निश्चय ही; फलम्—फल; त्यक्त्वा—त्याग कर; मनीषिण:—बड़े-बड़े ऋषि मुनि या भक्तगण; जन्म-बन्ध—जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से; विनिर्मुक्ता:—मुक्त; पदम्—पद पर; गच्छन्ति—पहुँचते हैं; अनामयम्—बिना कष्ट के ।
समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥ ५१ ॥
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥
यदा—जब; ते—तुम्हारा; मोह—मोह के; कलिलम्—घने जंगल को; बुद्धि:— बुद्धिमय दिव्य सेवा; व्यतितरिष्यति—पार कर जाती है; तदा—उस समय; गन्ता असि—तुम जाओगे; निर्वेदम्—विरक्ति को; श्रोतव्यस्य—सुनने योग्य के प्रति; श्रुतस्य—सुने हुए का; च—भी ।
जब तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी सघन वन को पार कर जायेगी तो तुम सुने हुए तथा सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा ॥ ५२ ॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥
श्रुति—वैदिक ज्ञान के; विप्रतिपन्ना—कर्मफलों से प्रभावित हुए बिना; ते—तुम्हारा; यदा—जब; स्थास्यति—स्थिर हो जाएगा; निश्चला—एकनिष्ठ; समाधौ—दिव्य चेतना या कृष्णभावनामृत में; अचला—स्थिर; बुद्धि:—बुद्धि; तदा—तब; योगम्—आत्म- साक्षात्कार; अवाप्स्यसि—तुम प्राप्त करोगे ।
जब तुम्हारा मन वेदों की अलंकारमयी भाषा से विचलित न हो और वह आत्म-साक्षात्कार की समाधि में स्थिर हो जाय, तब तुम योग को प्राप्त करोगे ॥ ५३ ॥
कर्मयोग सिखाता है कि आसक्तिरहित होकर कर्म करो। कर्मयोगी इसीलिए कर्म करता है कि कर्म करना उसे अच्छा लगता है और इसके परे उसका कोई हेतु नहीं है।
कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दु:खों से मुक्त हो जाता है।
उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता।