[५४-७२] स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा

  ॥ अर्जुन उवाच ॥
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४ ॥
स्थित-प्रज्ञस्य—कृष्णभावनामृत में स्थिर हुए व्यक्ति की; का—क्या; भाषा—भाषा; समाधि-स्थस्य—समाधि में स्थित पुरुष का; केशव—हे कृष्ण; स्थित-धी:—कृष्णभावना में स्थिर व्यक्ति; किम्—क्या; प्रभाषेत—बोलता है; किम्—कैसे; आसीत—रहता है; व्रजेत—चलता है; किम्— कैसे ।
अर्जुन ने कहा—हे कृष्ण! अध्यात्म में लीन चेतना वाले व्यक्ति (स्थितप्रज्ञ) के क्या लक्षण हैं? वह कैसे बोलता है तथा उसकी भाषा क्या है? वह किस तरह बैठता और चलता है? ॥ ५४ ॥
  ॥ श्रीभगवानुवाच ॥
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥
प्रजहाति—त्यागता है; यदा—जब; कामान्—इन्द्रियतृप्ति की इच्छाएँ; सर्वान्—सभी प्रकार की; पार्थ—हे पृथापुत्र; मन:- गतान्—मनोरथ का; आत्मनि—आत्मा की शुद्ध अवस्था में; एव—निश्चय ही; आत्मना—विशुद्ध मन से; तुष्ट:—सन्तुष्ट, प्रसन्न; स्थित-प्रज्ञ:—अध्यात्म में स्थित; तदा—उस समय, तब; उच्यते—कहा जाता है ।.
श्रीभगवान् ने कहा—हे पार्थ! जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में सन्तोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त (स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है ॥ ५५ ॥

दुःखेष्वनुद्विग्न‍मनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थिधीर्मुनिरुच्यते ॥ ५६ ॥
दु:खेषु—तीनों तापों में; अनुद्विग्न-मना:—मन में विचलित हुए बिना; सुखेषु—सुख में; विगत-स्पृह:—रुचिरहित होने; वीत—मुक्त; राग—आसक्ति; भय—भय; क्रोध:—तथा क्रोध से; स्थित-धी:—स्थिर मन वाला; मुनि:—मुनि; उच्यते—कहलाता है ।
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है ॥ ५६ ॥

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य श‍ुभाश‍ुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥
य:—जो; सर्वत्र—सभी जगह; अनभिस्नेह:—स्नेहशून्य; तत्—उस; तत्—उस; प्राप्य—प्राप्त करके; शुभ—अच्छा; अशुभम्—बुरा; न—कभी नहीं; अभिनन्दति— प्रशंसा करता है; न—कभी नहीं; द्वेष्टि—द्वेष करता है; तस्य—उसका; प्रज्ञा—पूर्ण ज्ञान; प्रतिष्ठिता—अचल ।
इस भौतिक जगत् में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है ॥ ५७ ॥

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥
यदा—जब; संहरते—समेट लेता है; च—भी; अयम्—यह; कूर्म:—कछुवा; अङ्गानि—अंग; इव—सदृश; सर्वश:—एकसाथ; इन्द्रियाणि—इन्द्रियाँ; इन्द्रिय- अर्थेभ्य:—इन्द्रियविषयों से; तस्य—उसकी; प्रज्ञा—चेतना; प्रतिष्ठिता—स्थिर ।
जिस प्रकार कछुवा अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियविषयों से खींच लेता है, वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है ॥ ५८ ॥

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥
विषया:—इन्द्रियभोग की वस्तुएँ; विनिवर्तन्ते—दूर रहने के लिए अभ्यास की जाती हैं; निराहारस्य—निषेधात्मक प्रतिबन्धों से; देहिन:—देहवान जीव के लिए; रस-वर्जम्— स्वाद का त्याग करता है; रस:—भोगेच्छा; अपि—यद्यपि है; अस्य—उसका; परम्— अत्यन्त उत्कृष्ट वस्तुर्एँ; दृष्ट्वा—अनुभव होने पर; निवर्तते—वह समाप्त हो जाता है ।
देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है। लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है ॥ ५९ ॥

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ ६० ॥
यतत:—प्रयत्न करते हुए; हि—निश्चय ही; अपि—के बावजूद; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; पुरुषस्य—मनुष्य की; विपश्चित:—विवेक से युक्त; इन्द्रियाणि—इन्द्रियाँ; प्रमाथीनि— उत्तेजित; हरन्ति—फेंकती हैं; प्रसभम्—बल से; मन:—मन को ।
हे अर्जुन! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि वे उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है ॥ ६० ॥

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥
तानि—उन इन्द्रियों को; सर्वाणि—समस्त; संयम्य—वश में करके; युक्त:—लगा हुआ; आसीत—स्थित होना चाहिए; मत्-पर:—मुझमें; वशे—पूर्णतया वश में; हि—निश्चय ही; यस्य—जिसकी; इन्द्रियाणि—इन्द्रियाँ; तस्य—उसकी; प्रज्ञा—चेतना; प्रतिष्ठिता—स्थिर ।
जो इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इन्द्रिय-संयमन करता है और अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है, वह मनुष्य स्थिरबुद्धि कहलाता है ॥ ६१ ॥

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ ६२ ॥
ध्यायत:—चिन्तन करते हुए; विषयान्—इन्द्रिय विषयों को; पुंस:—मनुष्य की; सङ्ग:—आसक्ति; तेषु—उन इन्द्रिय विषयों में; उपजायते—विकसित होती है; सङ्गात्— आसक्ति से; सञ्जायते—विकसित होती है; काम:—इच्छा; कामात्—काम से; क्रोध:—क्रोध; अभिजायते—प्रकट होता है ।
विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ॥ ६२ ॥

क्रोधाद्भ‍वति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ ६३ ॥
क्रोधात्—क्रोध से; भवति—होता है; सम्मोह:—पूर्ण मोह; सम्मोहात्—मोह से; स्मृति—स्मरणशक्ति का; विभ्रम:—मोह; स्मृति-भ्रंशात्—स्मृति के मोह से; बुद्धि नाश:—बुद्धि का विनाश; बुद्धि-नाशात्—तथा बुद्धिनाश से; प्रणश्यति—अध:पतन होता है ।
क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुन: गिर जाता है ॥ ६३ ॥

रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयनिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥
राग—आसक्ति; द्वेष—तथा वैराग्य से; विमुक्तै:—मुक्त रहने वाले से; तु—लेकिन; विषयान्—इन्द्रियविषयों को; इन्द्रियै:—इन्द्रियों के द्वारा; चरन्—भोगता हुआ; आत्म- वश्यै:—अपने वश में; विधेय-आत्मा—नियमित स्वाधीनता पालक; प्रसादम्— भगवत्कृपा को; अधिगच्छति—प्राप्त करता है ।
किन्तु समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त कर सकता है ॥ ६४ ॥

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याश‍ु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ ६५ ॥
प्रसादे—भगवान् की अहैतुकी कृपा प्राप्त होने पर; सर्व—सभी; दु:खानाम्—भौतिक दुखों का; हानि:—क्षय, नाश; अस्य—उसके; उपजायते—होता है; प्रसन्न-चेतस:— प्रसन्नचित्त वाले की; हि—निश्चय ही; आशु—तुरन्त; बुद्धि:—बुद्धि; परि—पर्याप्त; अवतिष्ठते—स्थिर हो जाती है ।
अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है ॥ ६५ ॥

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥ ६६ ॥
न अस्ति—नहीं हो सकती; बुद्धि:—दिव्य बुद्धि; अयुक्तस्य—कृष्णभावना से सम्बन्धित न रहने वाले में; न—नहीं; च—तथा; अयुक्तस्य—कृष्णभावना से शून्य पुरुष का; भावना—स्थिर चित्त (सुख में) ; न—नहीं; च—तथा; अभावयत:—जो स्थिर नहीं है उसके; शान्ति:—शान्ति; अशान्तस्य—अशान्त का; कुत:—कहाँ है; सुखम्—सुख ।
न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका न तो बुद्धि दिव्य होती है और न ही मन स्थिर होता है जिसके बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं है और शान्ति के बिना सुख कैसे मिल सकता है? ॥ ६६ ॥

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ ६७ ॥
इन्द्रियाणाम्—इन्द्रियों के; हि—निश्चय ही; चरताम्—विचरण करते हुए; यत्— जिसके साथ; मन:—मन; अनुविधीयते—निरन्तर लगा रहता है; तत्—वह; अस्य— इसकी; हरति—हर लेती है; प्रज्ञाम्—बुद्धि को; वायु:—वायु; नावम्—नाव को; इव—जैसे; अम्भसि—जल में ।
जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचण्ड वायु दूर बहा ले जाती है उसी प्रकार विचरणशील इन्द्रियों में से कोई एक जिस पर मन निरन्तर लगा रहता है, मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है ॥ ६७ ॥

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८ ॥
तस्मात्—अत:; यस्य—जिसकी; महा-बाहो—हे महाबाहु; निगृहीतानि—इस तरह वशीभूत; सर्वश:—सब प्रकार से; इन्द्रियाणि—इन्द्रिर्यां; इन्द्रिय-अर्थेभ्य:— इन्द्रियविषयों से; तस्य—उसकी; प्रज्ञा—बुद्धि; प्रतिष्ठिता—स्थिर ।
अत: हे महाबाहु! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सब प्रकार से विरत होकर उसके वश में हैं, उसी की बुद्धि निस्सन्देह स्थिर है ॥ ६८ ॥

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ६९ ॥
या—जो; निशा—रात्रि है; सर्व—समस्त; भूतानाम्—जीवों की; तस्याम्—उसमें; जागर्ति—जागता रहता है; संयमी—आत्मसंयमी व्यक्ति; यस्याम्—जिसमें; जाग्रति— जागते हैं; भूतानि—सभी प्राणी; सा—वह; निशा—रात्रि; पश्यत:—आत्मनिरीक्षण करने वाले; मुने:—मुनि के लिए ।
जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मसंयमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों के जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षक मुनि के लिए रात्रि है ॥ ६९ ॥

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्‍नोति न कामकामी ॥ ७० ॥
आपूर्यमाणम्—नित्य परिपूर्ण; अचल-प्रतिष्ठम्—दृढ़तापूर्वक स्थित; समुद्रम्—समुद्र में; आप:—नदियाँ; प्रविशन्ति—प्रवेश करती हैं; यद्वत्—जिस प्रकार; तद्वत्—उसी प्रकार; कामा:—इच्छाएँ; यम्—जिसमें; प्रविशन्ति—प्रवेश करती हैं; सर्वे—सभी; स:—वह व्यक्ति; शान्तिम्—शान्ति; आप्नोति—प्राप्त करता है; न—नहीं; काम- कामी—इच्छाओं को पूरा करने का इच्छुक ।
जो पुरुष समुद्र में निरन्तर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के समान इच्छाओं के निरन्तर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है, वही शान्ति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्टा करता हो ॥ ७० ॥

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कार स शान्तिमधिगच्छति ॥ ७१ ॥
विहाय—छोडक़र; कामान्—इन्द्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाएँ; य:—जो; सर्वान्— समस्त; पुमान्—पुरुष; चरति—रहता है; नि:स्पृह:—इच्छारहित; निर्मम:—ममतारहित; निरहङ्कार:—अहंकारशून्य; स:—वह; शान्तिम्—पूर्ण शान्ति को; अधिगच्छति—प्राप्त होता है ।
जिस व्यक्ति ने सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही वास्तविक शान्ति को प्राप्त कर सकता है ॥ ७१ ॥

एषा ब्राह्मी स्थितिःपार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ ७२ ॥
एषा—यह; ब्राह्मी—आध्यात्मिक; स्थिति:—स्थिति; पार्थ—हे पृथापुत्र; न—कभी नहीं; एनाम्—इसको; प्राप्य—प्राप्त करके; विमुह्यति—मोहित होता है; स्थित्वा— स्थित होकर; अस्याम्—इसमें; अन्त-काले—जीवन के अन्तिम समय में; अपि—भी; ब्रह्म-निर्वाणम्—भगवद्धाम को; ऋच्छति—प्राप्त होता है ।
हे अर्जुन! यह आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता। कोई जीवन के अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त कर सकता है ॥ ७२ ॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे ।
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥