शान्तिपर्व ~ द्वादश पर्व
महाभारत के शान्तिपर्व में ३ उपपर्व, ३६५ अध्याय एवम कुल ३२२० श्लोक हैं।
१. राजधर्मानुशासनपर्व
१. युधिष्ठिरके पास नारद आदि महर्षियोंका आगमन और युधिष्ठिरका कर्णके साथ अपना सम्बन्ध बताते हुए कर्णको शाप मिलनेका वृत्तान्त पूछना
२. नारदजीका कर्णको शाप प्राप्त होनेका प्रसंग सुनाना
३. कर्णको ब्रह्मास्त्रकी प्राप्ति और परशुरामजीका शाप
४. कर्णकी सहायतासे समागत राजाओंको पराजित करके दुर्योधनद्वारा स्वयंवरसे कलिंगराजकी कन्याका अपहरण
५. कर्णके बल और पराक्रमका वर्णन, उसके द्वारा जरासंधकी पराजय और जरासंधका कर्णको अंगदेशमें मालिनी नगरीका राज्य प्रदान करना
६. युधिष्ठिरकी चिन्ता, कुन्तीका उन्हें समझाना और स्त्रियोंको युधिष्ठिरका शाप
७. युधिष्ठिरका अर्जुनसे आन्तरिक खेद प्रकट करते हुए अपने लिये राज्य छोड़कर वनमें चले जानेका प्रस्ताव करना
८. अर्जुनका युधिष्ठिरके मतका निराकरण करते हुए उन्हें धनकी महत्ता बताना और राजधर्मके पालनके लिये जोर देते हुए यज्ञानुष्ठानके लिये प्रेरित करना
९. युधिष्ठिरका वानप्रस्थ एवं संन्यासीके अनुसार जीवन व्यतीत करनेका निश्चय
१०. भीमसेनका राजाके लिये संन्यासका विरोध करते हुए अपने कर्तव्यके ही पालनपर जोर देना
११. अर्जुनका पक्षिरूपधारी इन्द्र और ऋषि-बालकोंके संवादका उल्लेखपूर्वक गृहस्थ-धर्मके पालनपर जोर देना
१२. नकुलका गृहस्थ-धर्मकी प्रशंसा करते हुए राजा युधिष्ठिरको समझाना
१३. सहदेवका युधिष्ठिरको ममता और आसक्तिसे रहित होकर राज्य करनेकी सलाह देना
१४. द्रौपदीका युधिष्ठिरको राजदण्डधारणपूर्वक पृथ्वीका शासन करनेके लिये प्रेरित करना
१५. अर्जुनके द्वारा राजदण्डकी महत्ताका वर्णन
१६. भीमसेनका राजाको भुक्त दुःखोंकी स्मृति कराते हुए मोह छोड़कर मनको काबू में करके राज्यशासन और यज्ञके लिये प्रेरित करना
१७. युधिष्ठिरद्वारा भीमकी बातका विरोध करते हुए मुनिवृत्तिकी और ज्ञानी महात्माओंकी प्रशंसा
१८. अर्जुनका राजा जनक और उनकी रानीका दृष्टान्त देते हुए युधिष्ठिरको संन्यास ग्रहण करनेसे रोकना
१९. युधिष्ठिरद्वारा अपने मतकी यथार्थताका प्रतिपादन
२०. मुनिवर देवस्थानका राजा युधिष्ठिरको यज्ञानुष्ठानके लिये प्रेरित करना
२१. देवस्थान मुनिके द्वारा युधिष्ठिरके प्रति उत्तम धर्मका और यज्ञादि करनेका उपदेश
२२. क्षत्रियधर्मकी प्रशंसा करते हुए अर्जुनका पुनः राजा युधिष्ठिरको समझाना
२३. व्यासजीका शंख और लिखितकी कथा सुनाते हुए राजा सुद्युम्न दुण्डधर्मपालनका महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिरको राजधर्ममें ही दृढ़ रहनेकी आज्ञा देना
२४. व्यासजीका युधिष्ठिरको राजा हयग्रीवका चरित्र सुनाकर उन्हें राजोचित कर्तव्यका पालन करनेके लिये जोर देना
२५. सेनजित्के उपदेशयुक्त उद्गारोंका उल्लेख करके व्यासजीका युधिष्ठिरको समझाना
२६. युधिष्ठिरके द्वारा धनके त्यागकी ही महत्ताका प्रतिपादन
२७. युधिष्ठिरको शोकवश शरीर त्याग देनेके लिये उद्यत देख व्यासजीका उन्हें उससे निवारण करके समझाना
२८. अश्मा ऋषि और जनकके संवादद्वारा प्रारब्धकी प्रबलता बतलाते हुए व्यासजीका युधिष्ठिरको समझाना
२९. श्रीकृष्णके द्वारा नारद-सृजय-संवादके रूपमें सोलह राजाओंका उपाख्यान संक्षेपमें सुनाकर युधिष्ठिरके शोकनिवारणका प्रयत्न
३०. महर्षि नारद और पर्वतका उपाख्यान
३१. सुवर्णष्ठीवीके जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवनका वृत्तान्त
३२. व्यासजीका अनेक युक्तियोंसे राजा युधिष्ठिरको समझाना
३३. व्यासजीका युधिष्ठिरको समझाते हुए कालकी प्रबलता बताकर देवासुरसंग्रामके उदाहरणसे धर्मद्रोहियोंके दमनका औचित्य सिद्ध करना और प्रायश्चित्त करनेकी आवश्यकता बताना
३४. जिन कर्मोंके करने और न करनेसे कर्ता प्रायश्चित्तका भागी होता और नहीं होता उनका विवेचन
३५. पापकर्मके प्रायश्चित्तोंका वर्णन
३६. स्वायम्भुव मनुके कथनानुसार धर्मका स्वरूप, पापसे शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त, अभक्ष्य वस्तुओंका वर्णन तथा दानके अधिकारी एवं अनधिकारीका विवेचन
३७. व्यासजी तथा भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे महाराज युधिष्ठिरका नगरमें प्रवेश
३८. नगर-प्रवेशके समय पुरवासियों तथा ब्राह्मणोंद्वारा राजा युधिष्ठिरका सत्कार और उनपर आक्षेप करनेवाले चार्वाकका ब्राह्मणोंद्वारा वध
३९. चार्वाकको प्राप्त हुए वर आदिका श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन
४०. युधिष्ठिरका राज्याभिषेक
४१. राजा युधिष्ठिरका धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्यकी व्यवस्थाके लिये भाइयों तथा अन्य लोगोंको विभिन्न कार्योंपर नियुक्त करना
४२. राजा युधिष्ठिर तथा धृतराष्ट्रका युद्धमें मारे गये सगे-सम्बन्धियों तथा अन्य राजाओंके लिये श्राद्धकर्म करना
४३. युधिष्ठिरद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
४४. महाराज युधिष्ठिरके दिये हुए विभिन्न भवनोंमें भीमसेन आदि सब भाइयोंका प्रवेश और विश्राम
४५. युधिष्ठिरके द्वारा ब्राह्मणों तथा आश्रितोंका सत्कार एवं दान और श्रीकृष्णके पास जाकर उनकी स्तुति करते हुए कृतज्ञता-प्रकाशन
४६. युधिष्ठिर और श्रीकृष्णका संवाद, श्रीकृष्ण द्वारा भीष्मकी प्रशंसा और युधिष्ठिरको उनके पास चलनेका आदेश
४७. भीष्मद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति-भीष्मस्तवराज
४८. परशुरामजीद्वारा होनेवाले क्षत्रियसंहारके विषयमें राजा युधिष्ठिरका प्रश्न
४९. परशुरामजीके उपाख्यानमें क्षत्रियोंके विनाश और पुनः उत्पन्न होनेकी कथा
५०. श्रीकृष्णद्वारा भीष्मजीके गुण प्रभावका सविस्तर वर्णन
५१. भीष्मके द्वारा श्रीकृष्णकी स्तुति तथा श्रीकृष्णका भीष्मकी प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिरके लिये धर्मोपदेश करनेका आदेश
५२. भीष्मका अपनी असमर्थता प्रकट करना, भगवान्का उन्हें वर देना तथा ऋषियों एवं पाण्डवोंका दूसरे दिन आनेका संकेत करके वहाँसे विदा होकर अपने-अपने स्थानोंको जाना
५३. भगवान् श्रीकृष्णकी प्रातश्चर्या, सात्यकिद्वारा उनका संदेश पाकर भाइयोंसहित युधिष्ठिरका उन्हींके साथ कुरुक्षेत्रमें पधारना
५४. भगवान् श्रीकृष्ण और भीष्मजीकी बातचीत
५५. भीष्मका युधिष्ठिरके गुणकथनपूर्वक उनको प्रश्न करनेका आदेश देना, श्रीकृष्णका उनके लज्जित और भयभीत होनेका कारण बताना और भीष्मका आश्वासन पाकर युधिष्ठिरका उनके समीप जाना
५६. युधिष्ठिरके पूछनेपर भीष्मके द्वारा राजधर्मका वर्णन, राजाके लिये पुरुषार्थ और सत्यकी आवश्यकता, ब्राह्मणोंकी अदण्डनीयता तथा राजाकी परिहासशीलता और मृदुतासे प्रकट होनेवाले दोष
५७. राजाके धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्तावका वर्णन
५८. भीष्मद्वारा राज्यरक्षाके साधनोंका वर्णन तथा संध्याके समय युधिष्ठिर आदिका विदा_होना और रास्तेमें स्नान-संध्यादि नित्यकर्मसे निवृत्त होकर हस्तिनापुरमें प्रवेश
५९. ब्रह्माजीके नीतिशास्त्रका तथा राजा पृथुके चरित्रका वर्णन
६०. वर्ण-धर्मका वर्णन
६१. आश्रम-धर्मका वर्णन
६२. ब्राह्मणधर्म और कर्तव्यपालनका महत्त्व
६३. वर्णाश्रमधर्मका वर्णन तथा राजधर्मकी श्रेष्ठता
६४. राजधर्मकी श्रेष्ठताका वर्णन और इस विषयमें इन्द्ररूपधारी विष्णु और
६५. इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाताका संवाद मान्धाताका संवाद
६६. राजधर्मके पालनसे चारों आश्रमोंके धर्मका फल मिलनेका कथन
६७. राष्ट्रकी रक्षा और उन्नतिके लिये राजाकी आवश्यकताका प्रतिपादन
६८. वसुमना और बृहस्पतिके संवादमें राजाके न होनेसे प्रजाकी हानि और होनेसे लाभका वर्णन
६९. राजाके प्रधान कर्तव्योंका तथा दण्डनीतिके द्वारा युगोंके निर्माणका वर्णन
७०. राजाको इहलोक और परलोकमें सुखकी प्राप्ति करानेवाले छत्तीस गुणों का वर्णन
७१. धर्मपूर्वक प्रजाका पालन ही राजाका महान् धर्म है, इसका प्रतिपादन
७२. राजाके लिये सदाचारी विद्वान् पुरोहितकी आवश्यकता तथा प्रजापालनका महत्त्व
७३. विद्वान् सदाचारी पुरोहितकी आवश्यकता तथा ब्राह्मण और क्षत्रियमें मेल रहने से लाभ-विषयक राजा पुरूरवाका उपाख्यान
७४. ब्राह्मण और क्षत्रियके मेलसे लाभका प्रतिपादन करनेवाला मुचुकुन्दका उपाख्यान
७५. राजाके कर्तव्यका वर्णन, युधिष्ठिरका राज्यसे विरक्त होना एवं भीष्मजीका पुनः राज्यकी महिमा सुनाना
७६. उत्तम-अधम ब्राह्मणोंके साथ राजाका बर्ताव
७७. केकयराज तथा राक्षसका उपाख्यान और केकयराज्यकी श्रेष्ठताका विस्तृत वर्णन
७८. आपत्तिकालमें ब्राह्मणके लिये वैश्यवृत्तिसे निर्वाह करनेकी छूट तथा लुटेरोंसे अपनी और दूसरोंकी रक्षा करनेके लिये सभी जातियोंको शस्त्र धारण करनेका अधिकार एवं रक्षकको सम्मानका पात्र स्वीकार करना
७९. ऋत्विजोंके लक्षण, यज्ञ और दक्षिणाका महत्त्व तथा तपकी श्रेष्ठता
८०. राजाके लिये मित्र और अमित्रकी पहचान तथा उन सबके साथ नीतिपूर्ण बर्तावका और मन्त्रीके लक्षणोंका वर्णन
८१. कुटुम्बीजनोंमें दलबंदी होनेपर उस कुलके प्रधान पुरुषको क्या करना चाहिये? इसके विषयमें श्रीकृष्ण और नारदजीका संवाद
८२. मन्त्रियोंकी परीक्षाके विषयमें तथा राजा और राजकीय मनुष्योंसे सतर्क रहने के विषयमें कालकवृक्षीय मुनिका उपाख्यान
८३. सभासद् आदिके लक्षण, गुप्त सलाह सुननेके अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणाकी विधि एवं स्थानका निर्देश
८४. इन्द्र और बृहस्पतिके संवादमें सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन बोलनेका महत्त्व
८५. राजाकी व्यावहारिक नीति, मन्त्रिमण्डलका संघटन, दण्डका औचित्य तथा दूत, द्वारपाल, शिरोरक्षक, मन्त्री और सेनापतिके गुण
८६. राजाके निवासयोग्य नगर एवं दुर्गका वर्णन, उसके लिये प्रजापालनसम्बन्धी व्यवहार तथा तपस्वीजनोंके समादरका निर्देश
८७. राष्ट्रकी रक्षा तथा वृद्धिके उपाय
८८. प्रजासे कर लेने तथा कोश संग्रह करनेका प्रकार
८९. राजाके कर्तव्यका वर्णन
९०. उतथ्यका मान्धाताको उपदेश-राजाके लिये धर्मपालनकी आवश्यकता
९१. उतथ्यके उपदेशमें धर्माचरणका महत्त्व और राजाके धर्मका वर्णन
९२. राजाके धर्मपूर्वक आचारके विषयमें वामदेवजीका वसुमनाको उपदेश
९३. वामदेवजीके द्वारा राजोचित बर्तावका वर्णन
९४. वामदेवके उपदेशमें राजा और राज्यके लिये हितकर बर्ताव
९५. विजयाभिलाषी राजाके धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीतिका वर्णन
९६. राजाके छलरहित धर्मयुक्त बर्तावकी प्रशंसा
९७. शूरवीर क्षत्रियोंके कर्तव्यका तथा उनकी आत्मशुद्धि और सद्गतिका वर्णन
९८. इन्द्र और अम्बरीषके संवादमें नदी और यज्ञके रूपकोंका वर्णन तथा समरभूमिमें जूझते हुए मारे जानेवाले शूरवीरोंको उत्तम लोकोंकी प्राप्तिका कथन
९९. शूरवीरोंको स्वर्ग और कायरोंको नरककी प्राप्तिके विषयमें मिथिलेश्वर जनकका इतिहास
१००. सैन्यसंचालनकी रीति-नीतिका वर्णन
१०१. भिन्न-भिन्न देशके योद्धाओंके स्वभाव, रूप, बल, आचरण और लक्षणों का वर्णन
१०२. विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणोंका तथा उत्साही और बलवान् सैनिकोंका वर्णन एवं राजाको युद्धसम्बन्धी नीतिका निर्देश
१०३. शत्रुको वशमें करनेके लिये राजाको किस नीतिसे काम लेना चाहिये और दुष्टोंको कैसे पहचानना चाहिये- इसके विषयमें इन्द्र और बृहस्पतिका संवाद
१०४. राज्य, खजाना और सेना आदिसे वंचित हुए असहाय क्षेमदर्शी राजाके प्रति कालक-वृक्षीय मुनिका वैराग्यपूर्ण उपदेश
१०५. कालकवृक्षीय मुनिके द्वारा गये हुए राज्यकी प्राप्तिके लिये विभिन्न उपायोंका वर्णन
१०६. कालकवृक्षीय मुनिका विदेहराज तथा कोसलराजकुमारमें मेल कराना और विदेहराजका कोसलराजको अपना जामाता बना लेना
१०७. गणतन्त्र राज्यका वर्णन और उसकी नीति
१०८. माता-पिता तथा गुरुकी सेवाका महत्त्व
१०९. सत्य-असत्यका विवेचन, धर्मका लक्षण तथा व्यावहारिक नीतिका वर्णन
११०. सदाचार और ईश्वरभक्ति आदिको दुःखोंसे छूटनेका उपाय बताना
१११. मनुष्यके स्वभावकी पहचान बतानेवाली बाघ और सियारकी कथा
११२. एक तपस्वी ऊँटके आलस्यका कुपरिणाम और राजाका कर्तव्य
११३. शक्तिशाली शत्रुके सामने बेंतकी भाँति नतमस्तक होनेका उपदेश-सरिताओं और समुद्रका संवाद
३१४. दुष्ट मनुष्यद्वारा की हुई निन्दाको सह लेनेसे लाभ
११५. राजा तथा राजसेवकोंके आवश्यक गुण
११६. सज्जनोंके चरित्रके विषयमें दृष्टान्तरूपसे एक महर्षि और कुत्तेकी कथा
११७. कुत्तेका शरभकी योनिमें जाकर महर्षिके शापसे पुनः कुत्ता हो जाना
११८. राजाके सेवक, सचिव तथा सेनापति आदि और राजाके उत्तम गुणों का वर्णन एवं उनसे लाभ
११९. सेवकोंको उनके योग्य स्थानपर नियुक्त करने, कुलीन और सत्पुरुषोंका संग्रह करने, कोष बढ़ाने तथा सबकी देखभाल करनेके लिये राजाको प्रेरणा
१२०. राजधर्मका साररूपमें वर्णन
१२१. दण्डके स्वरूप, नाम, लक्षण, प्रभाव और प्रयोगका वर्णन
१२२. दण्डकी उत्पत्ति तथा उसके क्षत्रियोंके हाथमें आनेकी परम्पराका वर्णन
१२३. त्रिवर्गका विचार तथा पापके कारण पदच्युत हुए राजाके पुनरुत्थानके विषयमें आंगरिष्ठ और कामन्दकका संवाद
१२४. इन्द्र और प्रह्लादकी कथा-शीलका प्रभाव, शीलके अभावमें धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मीके न रहनेका वर्णन
१२५. युधिष्ठिरका आशाविषयक प्रश्न-उत्तरमें राजा सुमित्र और ऋषभ नामक ऋषिके इतिहासका आरम्भ, उसमें राजा सुमित्रका एक मृगके पीछे दौड़ना
१२६. राजा सुमित्रका मृगकी खोज करते हुए तपस्वी मुनियोंके आश्रमपर पहुँचना और उनसे आशाके विषयमें प्रश्न करना
१२७. ऋषभका राजा सुमित्रको वीरद्युम्न और तनु मुनिका वृत्तान्त सुनाना
१२८. तनु मुनिका राजा वीरद्युम्नको आशाके स्वरूपका परिचय देना और ऋषभके उपदेशसे सुमित्रका आशाको त्याग देना
१२९. यम और गौतमका संवाद
१३०. आपत्तिके समय राजाका धर्म
२. आपद्धर्मपर्व
१३१. आपत्तिग्रस्त राजाके कर्तव्यका वर्णन
१३२. ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओंके धर्मका वर्णन तथा धर्मकी गतिको सूक्ष्म बताना
१३३. राजाके लिये कोशसंग्रहकी आवश्यकता, मर्यादाकी स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्तिकी निन्दा
१३४. बलकी महत्ता और पापसे छूटनेका प्रायश्चित्त
१३५. मर्यादाका पालन करने-करानेवाले कायव्य नामक दस्युकी सद्गतिका वर्णन
१३६. राजा किसका धन ले और किसका न ले तथा किसके साथ कैसा बर्ताव करे-इसका विचार
१३७. आनेवाले संकटसे सावधान रहनेके लिये दूरदर्शी, तत्कालज्ञ और दीर्घसूत्री- इन तीन मत्स्योंका दृष्टान्त
१३८. शत्रुओंसे घिरे हुए राजाके कर्तव्यके विषयमें बिडाल और चूहेका आख्यान
१३९. शत्रुसे सदा सावधान रहनेके विषयमें राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़ियाका संवाद
१४०. भारद्वाज कणिकका सौराष्ट्रदेशके राजाको कूटनीतिका उपदेश
१४१. 'ब्राह्मण भयंकर संकटकालमें किस तरह जीवन निर्वाह करे' इस विषयमें विश्वामित्र मुनि और चाण्डालका संवाद
१४२. आपत्कालमें राजाके धर्मका निश्चय तथा उत्तम ब्राह्मणोंके सेवनका आदेश
१४३. शरणागतकी रक्षा करनेके विषयमें एक बहेलिये और कपोत-कपोतीका प्रसंग, सर्दीसे पीड़ित हुए बहेलियेका एक वृक्षके नीचे जाकर सोना
१४४. कबूतरद्वारा अपनी भार्याका गुणगान तथा पतिव्रता स्त्रीकी प्रशंसा
१४५. कबूतरीका कबूतरसे शरणागत व्याधकी सेवाके लिये प्रार्थना
१४६. कबूतरके द्वारा अतिथि सत्कार और अपने शरीरका बहेलियेके लिये परित्याग
१४७. बहेलियेका वैराग्य
१४८. कबूतरीका विलाप और अग्निमें प्रवेश तथा उन दोनोंको स्वर्गलोककी प्राप्ति
१४९. बहेलियेको स्वर्गलोककी प्राप्ति
१५०. इन्द्रोत मुनिका राजा जनमेजयको फटकारना
१५१. ब्रह्महत्याके अपराधी जनमेजयका इन्द्रोत मुनिकी शरणमें जाना और इन्द्रीत मुनिका उससे ब्राह्मणद्रोह न करनेकी प्रतिज्ञा कराकर उसे शरण देना
१५२. इन्द्रोतका जनमेजयको धर्मोपदेश करके उनसे अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान कराना तथा निष्पाप राजाका पुनः अपने राज्यमें प्रवेश
१५३. मृतककी पुनर्जीवन प्राप्तिके विषयमें एक ब्राह्मण बालकके जीवित होनेकी कथा; उसमें गीध और सियारकी बुद्धिमता
१५४. नारदजीका सेमल वृक्षसे प्रशंसापूर्वक प्रश्न
१५५. नारदजीका सेमल वृक्षको उसका अहंकार देखकर फटकारना
१५६. नारदजीकी बात सुनकर वायुका सेमलको धमकाना और सेमलका वायुको तिरस्कृत करके विचारमग्न होना
१५७. सेमलका हार स्वीकार करना तथा बलवान् के साथ वैर न करनेका उपदेश
१५८. समस्त अनर्थोंका कारण लोभको बताकर उससे होनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन तथा श्रेष्ठ महापुरुषोंके लक्षण
१५९. अज्ञान और लोभको एक दूसरेका कारण बताकर दोनोंकी एकता करना और दोनों को ही समस्त दोषोंका कारण सिद्ध करना
१६०. मन और इन्द्रियोंके संयमरूप दमका माहात्म्य
१६१. तपकी महिमा
१६२. सत्यके लक्षण, स्वरूप और महिमाका वर्णन
१६३. काम, क्रोध आदि तेरह दोषोंका निरूपण और उनके नाशका उपाय
१६४. नृशंस अर्थात् अत्यन्त नीच पुरुषके लक्षण
१६५. नाना प्रकारके पापों और उनके प्रायश्चित्तोंका वर्णन
१६६. खड्गकी उत्पत्ति और प्राप्तिकी परम्पराकी महिमाका वर्णन
१६७. धर्म, अर्थ और कामके विषयमें विदुर तथा पाण्डवोंके पृथक्-पृथक् विचार तथा अन्तमें युधिष्ठिरका निर्णय
१६८. मित्र बनाने एवं न बनाने योग्य पुरुषोंके लक्षण तथा कृतघ्न गौतमकी कथाका आरम्भ
१६९. गौतमका समुद्रकी ओर प्रस्थान और संध्याके समय एक दिव्य बकपक्षीके घरपर अतिथि होना
१७०. गौतमका राजधर्माद्वारा आतिथ्य सत्कार और उसका राक्षसराज विरूपाक्षके भवनमें प्रवेश
१७१. गौतमका राक्षसराजके यहाँसे सुवर्णराशि लेकर लौटना और अपने मित्र बकके वधका घृणित विचार मनमें लाना
१७२. कृतघ्न गौतमद्वारा मित्र राजधर्माका वध तथा राक्षसोंद्वारा उसकी हत्या और कृतघ्नके मांसको अभक्ष्य बताना
१७३. राजधर्मा और गौतमका पुनः जीवित होना
३. मोक्षधर्मपर्व
१७४. शोकाकुल चित्तकी शान्तिके लिये राजा सेनजित् और ब्राह्मणके संवादका वर्णन
१७५. अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषका क्या कर्तव्य है, इस विषयमें पिताके प्रति पुत्रद्वारा ज्ञानका उपदेश
१७६. त्यागकी महिमाके विषयमें शम्पाक ब्राह्मणका उपदेश
१७७. मंकिगीता—धनकी तृष्णासे दुःख और उसकी कामनाके त्यागसे परम सुखकी प्राप्ति
१७८. जनककी उक्ति तथा राजा नहुषके प्रश्नोंके उत्तरमें बोध्यगीता
१७९. प्रह्लाद और अवधूतका संवाद-अजगर-वृत्तिकी प्रशंसा
१८०. सद्बुद्धिका आश्रय लेकर आत्महत्यादि पापकर्मसे निवृत्त होनेके सम्बन्धमें काश्यप ब्राह्मण और इन्द्रका संवाद
१८१. शुभाशुभ कर्मोंका परिणाम कर्ताको अवश्य भोगना पड़ता है, इसका प्रतिपादन
१८२. भरद्वाज और भृगुके संवादमें जगत्की उत्पत्तिका और विभिन्न तत्त्वोंका वर्णन
१८३. आकाशसे अन्य चार स्थूल भूतोंकी उत्पत्तिका वर्णन
१८४. पंचमहाभूतोंके गुणोंका विस्तारपूर्वक वर्णन
१८५. शरीरके भीतर जठरानल तथा प्राण अपान आदि वायुओं की स्थिति आदिका वर्णन
१८६. जीवकी सत्तापर नाना प्रकारकी युक्तियोंसे शंका उपस्थित करना
१८७. जीवकी सत्ता तथा नित्यताको मुक्तियोंसे सिद्ध करना
१८८. वर्णविभागपूर्वक मनुष्योंकी और समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन
१८९. चारों वर्णोंके अलग-अलग कर्मोंका और सदाचारका वर्णन तथा वैराग्यसे परब्रह्मकी प्राप्ति
१९०. सत्यकी महिमा, असत्यके दोष तथा लोक और परलोकके सुख-दुःखका विवेचन
१९१. ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमोंके धर्मका वर्णन
१९२. वानप्रस्थ और संन्यास धर्मोंका वर्णन तथा हिमालयके उत्तर पार्श्वमें स्थित उत्कृष्ट लोककी विलक्षणता एवं महत्ताका प्रतिपादन, भृगु-भरद्वाज-संवादका उपसंहार
१९३. शिष्टाचारका फलसहित वर्णन, पापको छिपानेसे हानि और धर्मकी प्रशंसा
१९४. अध्यात्मज्ञानका निरूपण
१९५. ध्यानयोगका वर्णन
१९६. जपयज्ञके विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न, उसके उत्तरमें जप और ध्यानकी महिमा और उसका फल
१९७. जापकमें दोष आनेके कारण उसे नरककी प्राप्ति
१९८. परमधामके अधिकारी जापकके लिये देवलोक भी नरकतुल्य हैं- इसका प्रतिपादन
१९९. जापकको सावित्रीका वरदान, उसके पास धर्म, यम और काल आदिका आगमन, राजा इक्ष्वाकु और जापक ब्राह्मणका संवाद, सत्यकी महिमा तथा जापककी परमगतिका वर्णन
२००. जापक ब्राह्मण और राजा इक्ष्वाकुकी उत्तम गतिका वर्णन तथा जापकको मिलनेवाले फलकी उत्कृष्टता
२०१. बृहस्पतिके प्रश्नके उत्तरमें मनुद्वारा कामनाओंके त्यागकी एवं ज्ञानकी प्रशंसा तथा परमात्मतत्त्वका निरूपण
२०२. आत्मतत्त्वका और बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थोंका विवेचन तथा उसके साक्षात्कारका उपाय
२०३. शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धिसे अतिरिक्त आत्माकी नित्य सत्ताका प्रतिपादन
२०४. आत्मा एवं परमात्माके साक्षात्कारका उपाय तथा महत्त्व
२०५. परब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय
२०६. परमात्मतत्त्वका निरूपण-मनु-बृहस्पतिसंवादकी समाप्ति
२०७. श्रीकृष्णसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्तिका तथा उनकी महिमाका कथन
२०८. ब्रह्माके पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियोंके वंशका तथा प्रत्येक दिशामें निवास करनेवाले महर्षियोंका वर्णन
२०९. भगवान् विष्णुका वराहरूपमें प्रकट होकर देवताओंकी रक्षा और दानवोंका विनाश कर देना तथा नारदको अनुस्मृतिस्तोत्रका उपदेश और नारदद्वारा भगवान्की स्तुति
२१०. गुरु-शिष्यके संवादका उल्लेख करते हुए श्रीकृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्त्वका वर्णन
२११. संसारचक्र और जीवात्माकी स्थितिका वर्णन
२१२. निषिद्ध आचरणके त्याग, सत्त्व, रज और तमके कार्य एवं परिणामका तथा सत्त्वगुणके सेवनका उपदेश
२१३. जीवोत्पत्तिका वर्णन करते हुए दोषों और बन्धनोंसे मुक्त होनेके लिये विषयासक्तिके त्यागका उपदेश
२१४. ब्रह्मचर्य तथा वैराग्यसे मुक्ति
२१५. आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्मकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करनेका उपदेश
२१६. स्वप्न और सुपुप्ति अवस्थामें मनकी स्थिति तथा गुणातीत ब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय
२१७. सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग, प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) उन चारोंके ज्ञानसे मुक्तिका कथन तथा परमात्मप्राप्तिके अन्य साधनोंका भी वर्णन
२१८. राजा जनकके दरबारमें पंचशिखका आगमन और उनके द्वारा नास्तिक मतोंके निराकरणपूर्वक शरीरसे भिन्न आत्माकी नित्य सत्ताका प्रतिपादन
२१९. पंचशिखके द्वारा मोक्ष-तत्त्वका विवेचन एवं भगवान् विष्णुद्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेवकी परीक्षा और उनके लिये वरप्रदान
२२०. श्वेतकेतु और सुवर्चलाका विवाह, दोनों पति-पत्नीका अध्यात्मविषयक संवाद तथा गार्हस्थ्य-धर्मका पालन करते हुए ही उनका परमात्माको प्राप्त होना एवं दमकी महिमाका वर्णन
२२१. व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथिसेवा आदिका विवेचन तथा यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन करनेवालेको परम उत्तम गतिकी प्राप्तिका कथन
२२२. सनत्कुमारजीका ऋषियोंको भगवत्स्वरूपका उपदेश देना
२२३. इन्द्र और बलिका संवाद-इन्द्रके आक्षेप युक्त वचनोंका बलिके द्वारा कठोर प्रत्युत्तर
२२४. बलि और इन्द्रका संवाद, बलिके द्वारा कालकी प्रबलताका प्रतिपादन करते हुए इन्द्रको फटकारना
२२५. इन्द्र और लक्ष्मीका संवाद, बलिको त्यागकर आयी हुई लक्ष्मीकी इन्द्रके द्वारा प्रतिष्ठा
२२६. इन्द्र और नमुचिका संवाद
२२७. इन्द्र और बलिका संवाद-काल और प्रारब्धकी महिमाका वर्णन
२२८. दैत्योंको त्यागकर इन्द्रके पास लक्ष्मीदेवीका आना तथा किन सद्गुणोंके होनेपर लक्ष्मी आती हैं और किन दुर्गुणोंके होनेपर वे त्यागकर चली जाती हैं, इस बातको विस्तारपूर्वक बताना
२२९. जैगीषव्यका असित देवलको समत्वबुद्धिका उपदेश
२३०. श्रीकृष्ण और उग्रसेनका संवाद-नारदजीकी लोकप्रियताके हेतुभूत गुणोंका वर्णन
२३१. शुकदेवजीका प्रश्न और व्यासजीका उनके प्रश्नोंका उत्तर देते हुए कालका स्वरूप बताना
२३२. व्यासजीका शुकदेवको सृष्टिके उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मोंका उपदेश
२३३. ब्राह्मप्रलय एवं महाप्रलयका वर्णन
२३४. ब्राह्मणोंका कर्तव्य और उन्हें दान देनेकी महिमाका वर्णन
२३५. ब्राह्मणके कर्तव्यका प्रतिपादन करते हुए कालरूप नदको पार करनेका उपाय बतलाना
२३६. ध्यानके सहायक योग, उनके फल और सात प्रकारकी धारणाओंका वर्णन तथा सांख्य एवं योगके अनुसार ज्ञानद्वारा मोक्षकी प्राप्ति
२३७. सृष्टिके समस्त कार्योंमें बुद्धिकी प्रधानता और प्राणियोंकी श्रेष्ठताके तारतम्यका वर्णन
२३८. नाना प्रकारके भूतोंकी समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्वका विवेचन, युगधर्मका वर्णन एवं कालका महत्त्व
२३९. ज्ञानका साधन और उसकी महिमा
२४०. योगसे परमात्माकी प्राप्तिका वर्णन
२४१. कर्म और ज्ञानका अन्तर तथा ब्रह्म-प्राप्तिके उपायका वर्णन
२४२. आश्रमधर्मकी प्रस्तावना करते हुए ब्रह्मचर्य आश्रमका वर्णन
२४३. ब्राह्मणोंके उपलक्षणसे गार्हस्थ्य-धर्मका वर्णन
२४४. वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमके धर्म और महिमाका वर्णन
२४५. संन्यासीके आचरण और ज्ञानवान् संन्यासीकी प्रशंसा
२४६. परमात्माकी श्रेष्ठता, उसके दर्शनका उपाय तथा इस ज्ञानमय उपदेशके पात्रका निर्णय
२४७. महाभूतादि तत्त्वोंका विवेचन
२४८. बुद्धिकी श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक
२४९. ज्ञानके साधन तथा ज्ञानीके लक्षण और महिमा
२५०. परमात्माकी प्राप्तिका साधन, संसार नदीका वर्णन और ज्ञानसे ब्रह्मकी प्राप्ति
२५१. ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणके लक्षण और परब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय
२५२. शरीरमें पंचभूतोंके कार्य और गुणोंकी पहचान
२५३. स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरसे भिन्न जीवात्माका और परमात्माका योगके द्वारा साक्षात्कार करनेका प्रकार
२५४. कामरूपी अद्भुत वृक्षका तथा उसे काटकर मुक्ति प्राप्त करनेके उपायका और शरीररूपी नगरका वर्णन
२५५. पंचभूतोंके तथा मन और बुद्धिके गुणोंका विस्तृत वर्णन
२५६. युधिष्ठिरका मृत्युविषयक प्रश्न, नारदजीका राजा अकम्पनसे मृत्युकी उत्पत्तिका प्रसंग सुनाते हुए ब्रह्माजीकी रोषाग्निसे प्रजाके दग्ध होनेका वर्णन
२५७. महादेवजीकी प्रार्थनासे ब्रह्माजीके द्वारा अपनी रोषाग्निका उपसंहार तथा मृत्युकी उत्पत्ति
२५८. मृत्युकी घोर तपस्या और प्रजापतिकी आज्ञासे उसका प्राणियोंके संहारका कार्य स्वीकार करना
२५९. धर्माधर्मके स्वरूपका निर्णय
२६०. युधिष्ठिरका धर्मकी प्रामाणिकतापर संदेह उपस्थित करना
२६१. जाजलिकी घोर तपस्या, सिरपर जटाओंमें पक्षियोंके घोंसला बनानेसे उनका अभिमान और आकाशवाणीकी प्रेरणासे उनका तुलाधार वैश्यके पास जाना
२६२. जाजलि और तुलाधारका धर्मके विषयमें संवाद
२६३. जाजलिको तुलाधारका आत्मयज्ञविषयक धर्मका उपदेश
२६४. जाजलिको पक्षियोंका उपदेश
२६५. राजा विचख्नुके द्वारा अहिंसा-धर्मकी प्रशंसा
२६६. महर्षि गौतम और चिरकारीका उपाख्यान-दीर्घकालतक सोच-विचारकर कार्य करनेकी प्रशंसा
२६७. द्युमत्सेन और सत्यवान्का संवाद-अहिंसा-पूर्वक राज्यशासनकी श्रेष्ठताका कथन
२६८. स्यूमरश्मि और कपिलका संवाद-स्यूमरश्मिके द्वारा यज्ञकी अवश्यकर्तव्यताका निरूपण
२६९. प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्गके विषयमें स्यूमरश्मि-कपिल संवाद
२७०. स्यूमरश्मि-कपिल-संवाद-चारों आश्रमोंमें उत्तम साधनोंके द्वारा ब्रह्मकी प्राप्तिका कथन
२७१. धन और काम-भोगोंकी अपेक्षा धर्म और तपस्याका उत्कर्ष सूचित करनेवाली ब्राह्मण और कुण्डधार मेघकी कथा
२७२. यज्ञमें हिंसाकी निन्दा और अहिंसाकी प्रशंसा
२७३. धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्षके विषयमें युधिष्ठिरके चार प्रश्न और उनका उत्तर
२७४. मोक्षके साधनका वर्णन
२७५. जीवात्माके देहाभिमानसे मुक्त होनेके विषयमें नारद और असितदेवलका संवाद
२७६. तृष्णाके परित्यागके विषयमें माण्डव्य मुनि और जनकका संवाद
२७७. शरीर और संसारकी अनित्यता तथा आत्म-कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषके कर्तव्यका निर्देश-पिता-पुत्रका संवाद
२७८. हारीत मुनिके द्वारा प्रतिपादित संन्यासीके स्वभाव, आचरण और धर्मोंका वर्णन
२७९. ब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय तथा उस विषयमें वृत्र-शुक्र-संवादका आरम्भ
२८०. वृत्रासुरको सनत्कुमारका अध्यात्मविषयक उपदेश देना और उसकी परमगति तथा भीष्मद्वारा युधिष्ठिरकी शंकाका निवारण
२८१. इन्द्र और वृत्रासुरके युद्धका वर्णन
२८२. वृत्रासुरका वध और उससे प्रकट हुई ब्रह्महत्याका ब्रह्माजीके स्थानों में विभाजन
२८३. शिवजीद्वारा दक्षयज्ञका भंग और उनके क्रोधसे ज्वरकी उत्पत्ति तथा उसके विविध रूप
२८४. पार्वतीके रोष एवं खेदका निवारण करनेके लिये भगवान् शिवके द्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षद्वारा किये हुए शिवसहस्रनाम स्तोत्रसे संतुष्ट होकर महादेवजीका उन्हें वरदान देना तथा इस स्तोत्रकी महिमा
२८५. अध्यात्मज्ञानका और उसके फलका वर्णन
२८६. समंगके द्वारा नारदजीसे अपनी शोकहीन स्थितिका वर्णन
२८७. नारदजीका गालव मुनिको श्रेयका उपदेश
२८८. अरिष्टनेमिका राजा सगरको वैराग्योत्पादक मोक्षविषयक उपदेश
२८९. भृगुपुत्र उशनाका चरित्र और उन्हें शुक्र नामकी प्राप्ति
२९०. पराशरगीताका आरम्भ-पराशर मुनिका राजा जनकको कल्याणकी प्राप्तिके साधनका उपदेश
२९१. पराशरगीता—कर्मफलकी अनिवार्यता तथा पुण्यकर्मसे लाभ
२९२. पराशरगीता-धर्मोपार्जित धनकी श्रेष्ठता, अतिथि सत्कारका महत्त्व, पाँच प्रकारके ऋणोंसे छूटनेकी विधि, भगवत्स्तवनकी महिमा एवं सदाचार तथा गुरुजनोंकी सेवासे महान् लाभ
२९३. पराशरगीता—शूद्रके लिये सेवावृत्तिकी प्रधानता, सत्संगकी महिमा और चारों वर्णोंके धर्मपालनका महत्त्व
२९४. पराशरगीता—ब्राह्मण और शूद्रकी जीविका, निन्दनीय कर्मोंके त्यागकी आज्ञा, मनुष्योंमें आसुरभावकी उत्पत्ति और भगवान् शिवके द्वारा उसका निवारण तथा स्वधर्मके अनुसार कर्तव्य पालनका आदेश
२९५. पराशरगीता—विषयासक्त मनुष्यका पतन, तपोबलकी श्रेष्ठता तथा दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालनका आदेश
२९६. पराशरगीता—वर्णविशेषकी उत्पत्तिका रहस्य, तपोबलसे उत्कृष्ट वर्णकी प्राप्ति, विभिन्न वर्णोंके विशेष और सामान्य धर्म, सत्कर्मकी श्रेष्ठता तथा हिंसारहित धर्मका वर्णन
२९७. पराशरगीता-नाना प्रकारके धर्म और कर्तव्योंका उपदेश
२९८. पराशरगीताका उपसंहार-राजा जनकके विविध प्रश्नोंका उत्तर
२९९. हंसगीता-हंसरूपधारी ब्रह्माका साध्यगणोंको उपदेश
३००. सांख्य और योगका अन्तर बतलाते हुए योगमार्गके स्वरूप, साधन, फल और प्रभावका वर्णन
३०१. सांख्ययोगके अनुसार साधन और उसके फलका वर्णन
३०२. वसिष्ठ और करालजनकका संवाद-क्षर और अक्षरतत्त्वका निरूपण और इनके ज्ञानसे मुक्ति
३०३. प्रकृति संसर्गके कारण जीवका अपनेको नाना प्रकारके कर्मोंका कर्ता और भोक्ता मानना एवं नाना योनियोंमें बारंबार जन्म ग्रहण करना
३०४. प्रकृतिके संसर्गदोषसे जीवका पतन
३०५. क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुषके विषयमें राजा जनककी शंका और उसका वसिष्ठजीद्वारा उत्तर
३०६. योग और सांख्यके स्वरूपका वर्णन तथा आत्मज्ञानसे मुक्ति
३०७. विद्या अविद्या, अक्षर और क्षर तथा प्रकृति और पुरुषके स्वरूपका एवं विवेकीके उद्गारका वर्णन
३०८. क्षर-अक्षर और परमात्मतत्त्वका वर्णन, जीवके नानात्व और एकत्वका दृष्टान्त, उपदेशके अधिकारी और अनधिकारी तथा इस ज्ञानकी परम्पराको बताते हुए वसिष्ठ-करालजनक-संवादका उपसंहार
३०९. जनकवंशी वसुमान्को एक मुनिका धर्म-विषयक उपदेश
३१०. याज्ञवल्क्यका राजा जनकको उपदेश-सांख्यमतके अनुसार चौबीस तत्त्वों और नौ प्रकारके सर्गोंका निरूपण
३११. अव्यक्त, महत्तत्त्व, अहंकार, मन और विषयोंकी कालसंख्याका एवं सृष्टिका वर्णन तथा इन्द्रियोंमें मनकी प्रधानताका प्रतिपादन
३१२. संहारक्रमका वर्णन
३९३. अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवतका वर्णन तथा सात्त्विक, राजस और तामस भावोंके लक्षण
३१४. सात्त्विक, राजस और तामस प्रकृतिके मनुष्योंकी गतिका वर्णन तथा राजा जनकके प्रश्न
३१५. प्रकृति-पुरुषका विवेक और उसका फल
३१६. योगका वर्णन और उसके साधनसे परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति
३१७. विभिन्न अंगोंसे प्राणोंके उत्क्रमणका फल तथा मृत्युसूचक लक्षणोंका वर्णन और मृत्युको जीतनेका उपाय
३१८. याज्ञवल्क्यद्वारा अपनेको सूर्यसे वेदज्ञानकी प्राप्तिका प्रसंग सुनाना, विश्वावसुको जीवात्मा और परमात्माकी एकताके ज्ञानका उपदेश देकर उसका फल मुक्ति बताना तथा जनकको उपदेश देकर विदा होना
३१९. जरा-मृत्युका उल्लंघन करनेके विषयमें पंचशिख और राजा जनकका संवाद
३२०. राजा जनककी परीक्षा करनेके लिये आयी हुई सुलभाका उनके शरीरमें प्रवेश करना, राजा जनकका उसपर दोषारोपण करना एवं सुलभाका युक्तियोंद्वारा निराकरण करते हुए राजा जनकको अज्ञानी बताना
३२१. व्यासजीका अपने पुत्र शुकदेवको वैराग्य और धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना
३२२. शुभाशुभ कर्मोंका परिणाम कर्ताको अवश्य भोगना पड़ता है, इसका प्रतिपादन
३२३. व्यासजीकी पुत्रप्राप्तिके लिये तपस्या और भगवान् शंकरसे वरप्राप्ति
३२४. शुकदेवजीकी उत्पत्ति और उनके यज्ञोपवीत, वेदाध्ययन एवं समावर्तन संस्कारका वृत्तान्त
३२५. पिताकी आज्ञासे शुकदेवजीका मिथिलामें जाना और वहाँ उनका द्वारपाल, मन्त्री और युवती स्त्रियोंके द्वारा सत्कृत होनेके उपरान्त ध्यानमें स्थित हो जाना
३२६. राजा जनकके द्वारा शुकदेवजीका पूजन तथा उनके प्रश्नका समाधान करते हुए ब्रह्मचर्याश्रममें परमात्माकी प्राप्ति होनेके बाद अन्य तीनों आश्रमोंकी अनावश्यकताका प्रतिपादन करना तथा मुक्त पुरुषके लक्षणों का वर्णन
३२७. शुकदेवजीका पिताके पास लौट आना तथा व्यासजीका अपने शिष्योंको स्वाध्यायकी विधि बताना
३२८. शिष्योंके जानेके बाद व्यासजीके पास नारदजीका आगमन और व्यासजीको वेदपाठके लिये प्रेरित करना तथा व्यासजीका शुकदेवको अनध्यायका कारण बताते हुए 'प्रवह' आदि सात वायुओंका परिचय देना
३२९. शुकदेवजीको नारदजीका वैराग्य और ज्ञानका उपदेश
३३०. शुकदेवका नारदजीका सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश
३३१. नारदजीका शुकदेवको कर्मफल-प्राप्तिमें परतन्त्रताविषयक उपदेश तथा शुकदेवजीका सूर्यलोकमें जानेका निश्चय
३३२. शुकदेवजीकी ऊर्ध्वगतिका वर्णन
३३३. शुकदेवजीकी परमपद-प्राप्ति तथा पुत्र-शोकसे व्याकुल व्यासजीको महादेवजीका आश्वासन देना
३३४. बदरिकाश्रममें नारदजीके पूछनेपर भगवान् नारायणका परमदेव परमात्माको ही सर्वश्रेष्ठ पूजनीय बताना
३३५. नारदजीका श्वेतद्वीपदर्शन, वहाँके निवासियोंके स्वरूपका वर्णन, राजा उपरिचरका चरित्र तथा पांचरात्रकी उत्पत्तिका प्रसंग
३३६. राजा उपरिचरके यज्ञमें भगवानपर बृहस्पतिका क्रोधित होना, एकत आदि मुनियोंका बृहस्पतिसे श्वेतद्वीप एवं भगवान्की महिमाका वर्णन करके उनको शान्त करना
३३७. यज्ञमें आहुतिके लिये अजका अर्थ अन्न है, बकरा नहीं- इस बातको जानते हुए भी पक्षपात करनेके कारण राजा उपरिचरके अधःपतनकी और भगवत्कृपासे उनके पुनरुत्थानकी कथा
३३८. नारदजीका दो सौ नामोंद्वारा भगवान्की स्तुति करना
३३९. श्वेतद्वीपमें नारदजीको भगवान्का दर्शन, भगवान्का वासुदेव-संकर्षण आदि अपने व्यूहस्वरूपोंका परिचय कराना और भविष्यमें होनेवाले अवतारोंके कार्योंकी सूचना देना और इस कथाके श्रवण-पठनका माहात्म्य
३४०. व्यासजीका अपने शिष्योंको भगवानद्वारा ब्रह्मादि देवताओंसे कहे हुए प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप धर्मके उपदेशका रहस्य बताना
३४१. भगवान् श्रीकृष्णका अर्जुनको अपने प्रभावका वर्णन करते हुए अपने नामोंकी व्युत्पत्ति एवं माहात्म्य बताना
३४२. सृष्टिकी प्रारम्भिक अवस्थाका वर्णन, ब्राह्मणोंकी महिमा बतानेवाली अनेक प्रकारकी संक्षिप्त कथाओंका उल्लेख, भगवन्नामोंके हेतु तथा रुद्रके साथ होनेवाले युद्ध में नारायणकी विजय
३४३. जनमेजयका प्रश्न, देवर्षि नारदका श्वेतद्वीपसे लौटकर नर-नारायणके पास जाना और उनके पूछनेपर उनसे वहाँके महत्त्वपूर्ण दृश्यका वर्णन करना
३४४. नर-नारायणका नारदजीकी प्रशंसा करते हुए उन्हें भगवान् वासुदेवका माहात्म्य बतलाना
३४५. भगवान् वराहके द्वारा पितरोंके पूजनकी मर्यादाका स्थापित होना
३४६. नारायणकी महिमासम्बन्धी उपाख्यानका उपसंहार
३४७. हयग्रीव अवतारकी कथा, वेदोंका उद्धार, मधुकैटभका वध तथा नारायणकी महिमाका वर्णन महिमा
३४८. सात्वत-धर्मकी उपदेश-परम्परा तथा भगवान्के प्रति ऐकान्तिक भावकी
३४९. व्यासजीका सृष्टिके प्रारम्भमें भगवान् नारायणके अंशसे सरस्वतीपुत्र अपान्तरतमाके रूपमें जन्म होनेकी और उनके प्रभावकी कथा
३५०. वैजयन्त पर्वतपर ब्रह्मा और रुद्रका मिलन एवं ब्रह्माजीद्वारा परम पुरुष नारायणकी महिमाका वर्णन
३५१. ब्रह्मा और रुद्रके संवादमें नारायणकी महिमाका विशेषरूपसे वर्णन
३५२. नारदके द्वारा इन्द्रको उञ्छवृत्तिवाले ब्राह्मणकी कथा सुनानेका उपक्रम
३५३. महापद्मपुरमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मणके सदाचारका वर्णन और उसके घरपर अतिथिका आगमन
३५४. अतिथिद्वारा स्वर्गके विभिन्न मार्गोंका कथन
३५५. अतिथिद्वारा नागराज पद्मनाभके सदाचार और सद्गुणोंका वर्णन तथा ब्राह्मणको उसके पास जानेके लिये प्रेरणा
३५६. अतिथिके वचनोंसे संतुष्ट होकर ब्राह्मणका उसके कथनानुसार नागराजके घरकी ओर प्रस्थान
३५७. नागपत्नीके द्वारा ब्राह्मणका सत्कार और वार्तालापके बाद ब्राह्मणके द्वारा नागराजके आगमनकी प्रतीक्षा
३५८. नागराजके दर्शनके लिये ब्राह्मणकी तपस्या तथा नागराजके परिवारवालोंका भोजनके लिये ब्राह्मणसे आग्रह करना
३५९. नागराजका घर लौटना, पत्नीके साथ उनकी धर्मविषयक बातचीत तथा पत्नीका उनसे ब्राह्मणको दर्शन देनेके लिये अनुरोध
३६०. पत्नीके धर्मयुक्त वचनोंसे नागराजके अभिमान एवं रोषका नाश और उनका ब्राह्मणको दर्शन देनेके लिये उद्यत होना
३६१. नागराज और ब्राह्मणका परस्पर मिलन तथा बातचीत
३६२. नागराजका ब्राह्मणके पूछने पर सूर्यमण्डलकी आश्चर्यजनक घटनाओंको सुनाना
३६३. उञ्छ एवं शिलवृत्तिसे सिद्ध हुए पुरुषकी दिव्य गति
३६४. ब्राह्मणका नागराजसे बातचीत करके और उञ्छव्रतके पालनका निश्चय करके अपने घरको जानेके लिये नागराजसे विदा माँगना
३६५. नागराजसे विदा ले ब्राह्मणका च्यवनमुनिसे उञ्छवृत्तिकी दीक्षा लेकर साधनपरायण होना और इस कथाकी परम्पराका वर्णन